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कविता :-खुली किताब हूँ मैं

कविता :-खुली किताब हूँ मैं

खुली किताब हूँ मैं

तुम कभी खुलकर इसे पढ़ना

संवरना रूबरू इसके

और अपने रूप को गढना |

 

ये आईना बनेगा

तुम मुझे देखोगी अपने में

वही एक शख्स हूँ मैं

तुम जिसे पाती थी सपने में |

 

ये अक्षर भाव सारे

ये सभी सारे तुम्हारे हैं

चमकती ज्ञान गंगा

चाँद ये तारे तुम्हारे हैं |

 

मैं तुममे हूँ तू मुझसे है

ये सृष्टि हमसे तुमसे है

सुखद ये पल ये अनुभव

रंग गुलाबी रंग तुमसे है |

 

ये पन्नों का पलटना

देखो ऋतुओं का बदलना है

तुम्हारी  उंगली रखने से

नरम शब्दों का गलना है |

 

पिघलती मोम सी स्याही

बगावत को बुलाती है

रवायत को ये धोखा है

मोहब्बत गुनगुनाती है |

 

गरम सांसो का छलना

गर्द गुबारों का ढल जाना

सभी कहते हैं तुमसे

आज पढ़ लो और कल जाना |

 

खुली किताब हूँ मैं

तुम कभी खुलकर इसे पढ़ना

संवरना रूबरू इसके

और अपने रूप को गढना |

            (अभिनव अरुण)

 

 

 

 

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Comment

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Comment by Abhinav Arun on April 27, 2011 at 9:34am
भूल से एक कमेन्ट मिट गया है उस दोस्त के प्रति खेद है .... और शुक्रिया दरअसल नया पेज सेट अप समझ में नहीं आया |
Comment by Abhinav Arun on April 26, 2011 at 3:15pm
bhaaee sahil jee, dheeraj jee ,virendra jee  aap sabka abhaar tippane ke liye aapka sneh bana rahe yahee kamna hai |
Comment by Dheeraj on April 25, 2011 at 11:59am
अरुण जी, आपकी कविताये और इनमे छुपे भाव सच में दिल के भावनाओ को झकझोर जाते है, जाने क्यों पर आपकी हर कविता जिन्दगी से जुडी लगती है , यक़ीनन आपके लेखनी से निकले हर भाव तहे दिल से सराहनीय होती है ..... भगवान आपके लेखनी क्षमता को यु ही बरक़रार रखे
Comment by Veerendra Jain on April 25, 2011 at 11:00am

ये पन्नों का पलटना

देखो ऋतुओं का बदलना है

तुम्हारी  उंगली रखने से

नरम शब्दों का गलना है |

 

पिघलती मोम सी स्याही

बगावत को बुलाती है

रवायत को ये धोखा है

मोहब्बत गुनगुनाती है |

 

waah waah...Arun ji..bahut hi badhiya kavita...hardik badhai is khoob soorat kruti ke liye aapko...

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