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ग़ज़ल-आरसी भी तरस जाता, तब मुहँ दिखाती हो |

बहर : २१२  २१२  २१२  २१२  २२

ना करो ऐसे↓ कुछ, रस्म जैसे निभाती हो

आरसी भी तरस जाता↓, तब  मुहँ दिखाती हो |

छोड़कर  तब गयी अब हमें,  क्यों रुला/ती हो   

याद के झरने↓ में आब जू, तुम बहाती हो |  

रात दिन जब लगी आँख, बन ख़्वाब आती हो

अलविदा कह दिया फिर, अभी क्यों सताती हो ? 

  

जिंदगी जीये हैं इस जहाँ मौज मस्ती से

गलतियाँ  भी किये याद क्यों अब दिलाती हो |

प्रज्ञ हो  जानती हो कहाँ  दुःखती  रग है

शोक आकुल हुआ जब, मुझे तुम हँसाती हो |

कहती↓ थी  मुँह कभी फेर लूँ तो तभी  कहना

दु:खी हूँ या खफ़ा, तुम नहीं अब मनाती हो  |

वक्सिसे जो मिली प्रेम के तेरे↓ चौखट पर

भूलना चाहता हूँ ,लगे  दिल जलाती हो

  

मौलिक व अप्रकाषित

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Comment

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Comment by Kalipad Prasad Mandal on October 5, 2016 at 7:01am

आदरणीय सुदेश कुमार जी , हौसला अफजाई के लिए तहे दिल से शुक्रिया |

Comment by सुरेश कुमार 'कल्याण' on October 4, 2016 at 12:29pm
आदरणीय श्री कालीपद जी सुन्दर भावपूर्ण रचना के लिए हार्दिक बधाई प्रेषित है । सादर ।
Comment by Kalipad Prasad Mandal on October 2, 2016 at 5:11pm

आदरणीय गिरिराज जी ,आपने सही कहा ,मुझे मान्य बहर पर ही लिखना चाहिए | दर असल यह मेरा स्वयं का एक प्रयोग था | सादर 

Comment by Kalipad Prasad Mandal on October 2, 2016 at 5:07pm

आदरणीय रवि शुक्लाजी ,शुक्रिया आपका 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 2, 2016 at 12:37pm

आदरनीय कालीपद भाई , गज़ल का प्रयास अच्छा हुआ है , आपको हार्दिक बधाइयाँ । आदरनीय अभी आपको मान्य बहर पर प्रयास करना चाहिये ऐसा मुझे लगता है , आप ऐसी बहर को चुने  जिन पर जानकार शुअरा गज़ल कह चुके हैं , ताकि लय पकड़ने मे भी आपको आसानी हो ।

Comment by Ravi Shukla on October 2, 2016 at 9:06am
आदरणीय कालीपद जी ग़ज़ल के प्रयास के लिए बधाई। आदरणीय शिज्जु जी का आशय आपके द्वारा ली गई बह्र के प्रयोग से है, मुतदारिक रुक्ने के सालिम अरकान ही अधिक प्रचलित है अंत में प्रयुक्त 22 का रुक्न इस संशय का कारण हो सकता है ।
Comment by Kalipad Prasad Mandal on October 1, 2016 at 10:03pm

आदाब आ समीर काबीर साहिब | मैं शकूर साहब से पूछ कर ठीक कर लूँगा | आभार आपका |सादर 

Comment by Kalipad Prasad Mandal on October 1, 2016 at 10:01pm

आ. शिज्जू "शकूर "जी  आदाब ,  क्या  बहर ही गलत है या अशअर  बेबहर  हो गए हैं ? ज़रा स्पष्ट बताएं तो सुधार  ले | सादर 

Comment by Samar kabeer on October 1, 2016 at 2:46pm
जनाब कालीपद प्रसाद जी आदाब,जनाब शिज्जु शकूर साहिब सही फ़रमा रहे हैं,ग़ज़ल अभी और समय चाहती है,बहरहाल इस प्रयास पर बधाई स्वीकार करें ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on October 1, 2016 at 1:28pm

आ. कालिपद सर अच्छा प्रयास है बस बह्र को लेकर शंका है, विद्वत जनों का इंतज़ार रहेगा, बहरहाल इस ग़ज़ल के लिए बधाई आपको

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