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ग़ज़ल - जाती तेरे मिज़ाज से क्यूँ बेरुख़ी नहीं

221 2121 1221 212
बुझते रहे चिराग गई तीरगी नही ।
फिर भी हवा के रुख से मेरी दुश्मनी नही ।।


आ जाइए हुज़ूर मुहब्बत के वास्ते ।
दैरो हरम में आज कहीं बेबसी नहीं ।।


बहकी अदा के साथ बहुत आशिकी हुई ।
गुजरी तमाम रात मिटी तिश्नगी नहीं ।।


कब से नज़र को फेर के बैठी है वो सनम ।
शायद मेरे नसीब में वो बात ही नहीं ।।


माना कि गैर से है ये वादा भी वस्ल का ।
उल्फ़त की बेखुदी में कहीं रौशनी नही ।।


तेरा वजूद है तो सलामत है ये शहर ।
वरना मेरी किसी से क़ोई बन्दगी नहीं ।।


मुझको मिले हैं दर्द वफ़ा की तलाश में ।
जाती तेरे मिजाज से क्यूँ बेरुखी नहीं ।।


मुमकिन है मैकदों में रकीबों की शाम हो ।।
यह बात सच नही कि वहां मयकशी नही ।।

-- नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित

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Comment by Naveen Mani Tripathi on October 28, 2016 at 2:02am
आ0 रामबली गुप्ता साहब आभार
Comment by रामबली गुप्ता on October 25, 2016 at 12:37pm
वाह क्या बात है आद0 भाई नवीन जी बहुत सुंदर ग़ज़ल कही आपने। दिल से बधाई लीजिये।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 25, 2016 at 11:36am

आदरणीय नवीन भाई , बहुत खूबसूरत गज़ल हुई है सभी शेर लाजवाब हुये हैं , दिली बधाइयाँ स्वीकार करें । आ. समर भाई की सालाप पर गौर फरमाइयेगा ।

Comment by रामबली गुप्ता on October 25, 2016 at 2:16am
क्या बात है भाई नवीन जी बहुत ही उम्दा कही है आपने दिल से मुबारकबाद लीजिये।
Comment by Naveen Mani Tripathi on October 24, 2016 at 2:39pm
आदरणीय कबीर साहब सादर नमन । आपकी सलाह मेरे लिए अत्यंत कीमती है । सादर आभार भी ।
Comment by Samar kabeer on October 24, 2016 at 2:06pm
जनाब नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है, दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।
चौथे शैर के ऊला मिसरे में 'बैठी' को "बैठा" करलें 'सनम'पुल्लिंग है ।

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