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बड़े होकर मैं - ( लघुकथा ) जानकी बिष्ट वाही

" ऐ भाई ... दे दे ना ..."
"फिर आ गया तू ! चल भाग यहाँ से।"
" भाई ! एक दे दे ना,तुमको तो रोज बहुत मिलता है।"
" तेरी समझ में नहीं आता? ये जगह बच्चों के लिए नहीं ... अरे ! अभी भी यहीं खड़ा है ? लगाऊँ क्या एक ?"
" भाई ! आप बहुत अच्छे हो !एक दे दो, फिर नहीं आऊँगा यहाँ ।" अब उस लगभग बारह साल के बच्चे ने मस्का लगाने की कोशिश की।
" बड़ा ज़िद्दी है।कौन - कौन है तेरे घर में ?"
" माँ,छोटी बहन और मैं ।"
" और तेरा बाप ?"
" वो तो हमें छोड़ कर चला गया।उसने दूसरी शादी कर ली।" अब उसकी आवाज़ में एक नफ़रत का भाव था।
" अच्छा ! स्कूल नहीं जाता तू ..."
" जाता हूँ ना भाई ! सुबह स्कूल,शाम को कूड़ा बिनता हूँ,माँ का हाथ बंटाने को।बस चल जाता है।"
उसने कनखियों से उस गुलाबी ढेर को देखते हुए कहा।
" अच्छा ले ले दोनों में से जो ठीक लगे।"
" भाई ! माँ पर ये रंग खूब अच्छा लगेगा।खुश हो जायेगी।रेशमी हैं ना।" उसने प्यार से उस गुलाबी साड़ी पर हाथ फेरा।
" पर तू माँ से क्या कहेगा,कि इसे कहाँ से लाया ?"
" सच बोलूंगा कि श्मशान से लाया हूँ।"
" माँ पहन लेगी क्या इसे?"
" हाँ पहन लेगी, उसकी साड़ी अब पहनने लायक नहीं रही । और बड़े होकर मैं इससे भी अच्छी खरीद कर दूंगा ना। ...आप बहुत प्यारे हो भाई!"
साड़ी बगल में दबाये वह, कुलांचे भरता वहाँ से भाग गया ।


जानकी बिष्ट वाही
मौलिक एवम् अप्रकाशित
नॉएडा-उत्तर प्रदेश

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Comment

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Comment by Dr Ashutosh Mishra on December 16, 2016 at 10:32pm
इस सूंदर प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई सादर
Comment by Janki wahie on December 16, 2016 at 1:23pm
दिल से आभार आ.कल्पना जी, कथा पर आपकी सुखद उपस्थिति उत्साह बढ़ाने वाली है।
Comment by Janki wahie on December 16, 2016 at 1:22pm
सादर हार्दिक आभार आ.नीता कसार जी, कथा पसन्द कर सार्थक टिप्पणी के लिए।
Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on December 15, 2016 at 11:01pm
अच्छी कथा आदरणीया जानकी जी । हार्दिक बधाई ।
Comment by Nita Kasar on December 15, 2016 at 9:22pm
बच्चा मासूम है पर उसे ज़िम्मेदारियों का अहसास है,संवेदनशील कथा के लिये बधाई आपको आद०जानकी वाही जी ।
Comment by Janki wahie on December 13, 2016 at 9:01am
आ गोपाल नारायण सर जी आपकी दो पंक्तियाँ मन मोह गई

सच बोलूंगा कि श्मशान से लाया हूँ,
बड़े होकर मैं इससे भी अच्छी खरीद कर दूंगा।
ऐ माँ तेरे आँचल की छाया रही तो,
आसमाँ को जीत कर लाऊंगा।
Comment by Janki wahie on December 13, 2016 at 8:56am
हार्दिक आभार आ.प्रतिभा जी , आप हमेशा कथा पर उपस्थित होकर मेरा उत्साहवर्धन करती है।इसी तरह हमेशा अपना नेह दीजियेगा।
Comment by pratibha pande on December 13, 2016 at 8:27am

मन को छू गई आपकी  रचना ....हार्दिक बधाई आपको इस सृजन के लिए आदरणीया जानकी जी .

Comment by Janki wahie on December 13, 2016 at 6:24am
सादर हार्दिक आभार आ, मिथिलेश सर जी, कथा पर उपस्थित कर हौसला बढ़ाने के लिए। कथा और वरिष्ठजनों की उपस्थिति बेहतर लेखन के लिए प्रेरित करती है।
Comment by Janki wahie on December 13, 2016 at 6:19am
हार्दिक आभार शहज़ाद जी।आपकी बात विचारणीय है।पहले इसका शीर्षक "साड़ी "रखा था।

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