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बह्र 2122 2122 2122

रंजो ग़म में दिल मेरा उलझा हुआ है।
अश्क़ से तकिया तभी भीगा हुआ है।।

तू समझ पाये भी कैसे ये रवानी।
इश्क़ का दरिया तेरा सूखा हुआ है।।

साथ रहकर साथ वो क्योंकर नही था।
हर ज़ुबां पे ये सवाल आया हुआ है।।

ग़म मुझे दो और तुम हद से ज़ियादा।
क्योंकि ये चेहरा मेरा हँसता हुआ है।।

रास्ते भटकूँगा आख़िर क्यों भला मैं।
वक़्त का पहलू मेरा देखा हुआ है।।

पी के सब कड़वाहटें इस ज़िन्दगी की।
दोस्तों लहजा मेरा ऐसा हुआ है।।

इस जहाँ की ये मुहब्बत देखकर भी।
रूद्र आँखों को मेरी ये क्या हुआ है।।

.
गौरव पांडेय रूद्र
मौलिक और अप्रकाशित रचना

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Comment by gaurav kumar pandey on January 17, 2017 at 9:44pm
हार्दिक आभार सर

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on January 17, 2017 at 9:34pm

आदरणीय बृजेश बृज भाई , अच्छी गज़ल कही है , हार्दिक बधाइयाँ स्वीकार करें । आ. समर भाई की सलाह पर गौर कीजियेगा ।

Comment by gaurav kumar pandey on January 17, 2017 at 4:16pm
मुआफी चाहूंगा पुनः नमन
Comment by Samar kabeer on January 17, 2017 at 4:10pm
'समीर'नहीं भाई "समर"
Comment by gaurav kumar pandey on January 17, 2017 at 2:18pm
समीर जी हार्दिक हार्दिक आभार आप का
Comment by gaurav kumar pandey on January 17, 2017 at 2:18pm
आदरणीय आरिफ जी बहुत बहुत आभार आप का
Comment by gaurav kumar pandey on January 17, 2017 at 2:17pm
मिथिलेश जी हार्दिक आभार आप का आदरणीय

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 17, 2017 at 12:28pm

आदरणीय गौरव जी, बढ़िया ग़ज़ल कही है आपने. हार्दिक बधाई. सादर 

Comment by Mohammed Arif on January 16, 2017 at 10:43pm
आदरणीय गौरव जी, आदाब ! बेहतरीन ग़ज़ल के लिए बधाई ।
Comment by Samar kabeer on January 16, 2017 at 4:02pm
जनाब गौरव पाण्डेय'रूद्र'जी आदाब,उम्दा ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
पांचवें शैर में 'रास्ते'को "रास्ता"कर लीजिये, मुहावरा यही है ।

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