ग़ज़ल:
तेरी मेरी कहीं कुछ कहानी भी है
प्यार में तैरती ज़िन्दगानी भी है
मत डरो देख तुम इस जमन की लहर
रासलीला तुम्हीं संग रचानी भी है
आँसुओं से नहाती रही उम्र-भर
तू ही चंपा मेरी रातरानी भी है
फूल जब मुस्कुराएँ तो समझा करो
इन बहारों में अपनी जवानी भी है
बाँध मत प्यार की बह रही है नदी
है रवाँ जिसमें उल्फ़त का पानी भी है
साथ देता हमेशा रहा हमसफ़र
ज़िन्दगी इसलिए तो सुहानी भी है
अब न छोड़ेगा तुमको अकेला 'अमर'
ज़िंदगी साथ हमको बितानी भी है
अमर पंकज
(डाॅ अमर नाथ झा)
देहली यूनिवर्सिटी
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
आदरणीय दंडपाणी नाहक साहेब। आपको ग़ज़ल पसंद आई। हमारा आभार स्वीकार करें। धन्यवाद।
हार्दिक आभार आदरणीय समर क़बीर साहब, प्रणाम। आपने ग़ज़ल पढ़ी और अपनी बहूमूल्य टिप्पणी दी, यह मेरे लिए सौभाग्य की बात है। आपके कहे अनुसार एक शेर के मिसरा- सानी में बदलाव करता हूँ। दूसरा और तीसरा शेर मुझे बहुत प्रिय है, अतः उनमें सुधार की कोशिश करता हूँ।
यूँ ही आपका आशीर्वाद बना रहे। प्रणाम।
जनाब अमर पंकज जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
दूसरे और तीसरे शैर के दोनों मिसरों में रब्त नहीं है,उन्हें हटा दें ।
'ज़िंदगी अब तलक ये सुहानी भी है'
इस मिसरे को यूँ कर लें:-
'ज़िन्दगी इसलिए तो सुहानी भी है'
आवश्यक सूचना:-
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