सफर बाकी है अभी
अभी बाकी है
जिंदगी से अभिसार
कह रहा हूं
तुम्हीं से
बार-बार
सुन रही हो न
ऐ मृत्यु के आगार।
अभी तो अक्षुण्ण है
जीवन-ऊष्मा का
अनंत पारावार।
सुनो तुम
जीवन की
चुनौती भरी ललकार
हमेशा भारी पड़ेगा
तुम्हारे
क्रूर-दानवी अट्टहास पर
हमारा
मधुरिम-संसार।
साक्षी का
कत्थक-नृत्य
सोनू का
छाया-चित्र
मेरी कविता की
तान
और
प्रिय की मुस्कान
नित दे रहे हमें
अक्षत-जीवन का
शाश्वत वरदान।
मेरे गाँव को तो
देखा है तुमने
वहाँ देखा होगा
हर पल
जीवन के स्पन्दन को
तुम्हारे क्रूर-प्रहार
निरन्तर सहकर भी
बेसुध हो
नर्तन करता
'चिरहास-अश्रुमय'
मधुमय
जीवन का संसार।
नीमगाछ-छाँव तले
निश्चिन्त लेटकर
बतियाते
बेसिर-पैर की बातें करते
गाँव से लेकर अमेरिका की
राजनीति की
नब्ज टटोलते
ब्राह्मणत्व के दर्प से गर्वित
स्वयं को
दुनिया का सबसे बुद्धिमान
विचारवान-संस्कारवान
चरित्रवान प्राणी जतलाते
दुर्लभ स्वाभिमान की थाती
फोकट में संजोते
एक ही धोती
सुखाते-पहनते
जनेऊ छूकर
नित्य अपनी
अखंड पवित्रता की
कसमें
खाते नहीं अघाते
हंस-हंस कर
उम्र भर
दारिद्र्य की जिन्दगी
शान से गुजारते
अद्भुत
मानव समूह को।
बतालाओ आज
सच-सच
क्या तुमने
झांककर कभी देखा है
उम्र-दराज आँखों में
रचे-बसे
मोद-मय जीवन की
हरित कामनाओं को ?
देखा होगा तुमने
जामुन की सुगन्ध पर
गुंजार करती
भौंरों की टोलियां
पककर जमीन पर
गिर गई निबोरियों से
रस चूस-चूस
मधुमय
अमृत बनाती
मघुमक्खियों की
शोखियाँ
आग बरसाती लू में
तपती हवा की
किए बिना परवाह
कभी धूप
कभी छाँव में
लहराती-बलखाती
इठलाती-मंडराती
इन्द्रधनुषी छटा
यहाँ-वहाँ बिखेरती
रंग-बिरंगी
तितलियाँ।
जरूर देखा होगा
भरी दुपहरी में
घरवालों की आखों में
नित धूल झोंककर
घरों से भागकर
पत्थर मार गिराते
नमक-मिर्च लगाकर
खट्टे आम खाकर
जिन्दगी का जश्न मनाते
जीवन के ही गीत गाते
रोज तुझे चिढ़ाते
मस्ती में डूबे
नटखट-शरारती
उपद्रवी बच्चों की
भटक रही टोलियाँ।
पहला घर
गाँव का
हमारा ही तो है
अहाते के दरवाजे पर
ठीक बांई तरफ
आज भी खड़ा है
विशाल
फलदार-छायादार
आम का पेड़।
नुनुका का दावा था
उन्होने ही रोपा था
अपनी जवानी में इसे
इसीलिए तो
जब भी हम चढ़ते थे
अपने इस पेड़ पर
गूँजने लगती थी
उस छत से आती
दहाड़ती आवाज !
जब तक वो आते
अपनी जवानी की
साधना पर
लम्बा-लच्छेदार
भाषण सुनाते
हम सब
नौ-दो-ग्यारह हो जाते।
भरी दुपहरी में
रेतीली पगडंडियों पर
हरदम भगने वाले
आम-इमली की खुशबू से
बौरा जाने वाले
बार-बार तोड़कर
नमक-मिर्च सानकर
चटकारे ले-लेकर
हरे छिलके समेत
खट्टे-कच्चे आम खाकर
आत्मा की गहराईयों तक
तृप्त होने वाले
उन्मादी-जीवन की
अदम्य जीजीविषा को
कौन तोड़ सकता है?
बोलो-बोलो
बोलो तुम
क्या तुम ?
हर्गिज नहीं !
माँ कहा करती थी
नरियरवा आमगाछ तले
नुनु (दादा जी) का जनम हुआ
केरवा आमगाछ भी
घर के कोला में था
वहीं रहते थे
बाप-दादों के पुरखे।
नरियरवा आमगाछ
नहीं रहा
केरवा आमगाछ भी
बूढ़ा हो गया
तो क्या हुआ ?
स्मृतियों की थाती
अभी तक जवान है
स्मृतियाँ
जीवन का रोशनदान है
पुरखों का अवदान है।
माँ-बुढी(दादी) चली गईं
बाद में नुनु गए
असमय ही बाबूका भी
हम सभी को छोड़ गए
बिलखती हुई माँ
विधवा होकर
हो गई अनाथ !
लेकिन नहीं
हम नहीं हुए अनाथ !
माँ ने फटकार दिया
दुर्दिन को
किशोर उम्र में ही
बाबूदा ने
ललकार दिया
दुर्दिन को
और
दे दिया सबको
अपने लौह व्यक्तित्व का
अभेद्य कवच।
सब पलते गए
निरन्तर बढ़ते गए
दुखों को मिल-बाँट
साथ-साथ झेलते गए
दुर्गम जीवन-पथ की
भयंकर आपदाओं से
आँख-मिचौली खेलते गए
असहज जिन्दगी
सरलता से जीते गए।
पता तो है तुम्हें भी
आस-पास ही जो
खड़ी रहा करती थी
छिप-छिप कर
सब कुछ
देख लिया करती थी
हां, तब जीवन
था कठिन
मगर हम डटे रहे
जीने की जिद पर
अहर्निश अड़े रहे।
रोते-हँसते
लड़ते-झगड़ते
ताल ठोंक-ठोंक
तुमको ललकारते
जीवन-रस पीते रहे ।
माँ चली गई
रह गई कुर्बानियाँ
उनकी कही
अनकही कहानियाँ।
आमगाछ की
ताजी रोमाँचित करती
स्मृतियाँ जीवन्त हैं
वैसे ही जैसे
जीवन का हर रस
मुग्ध हो पीने की
पोर-पोर जीने की
तमन्ना
अथाह-अनन्त है।
बार-बार गीत मेरे
करते मनुहार हैं !
आज तुम नाद सुनो
जीवन संगीत का
अभी बाकी है
संवाद अविरल पारावार से
मंझधार से उस पार से
ऐ देवि
सुन रही हो न
ताल लय
मधुमास का विश्वास का आभास का
फैला है जो चारों ओर
समेटे सब कुछ
सब कुछ
-- अमर पंकज
(डा अमरनाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
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