हुई गया प्रभु से मिलनवा
सुन रे अनाड़ी हमरा मनवा ...
लख चुरासी तूने नरक बिताया
प्रभु नाम तूने कभी नही ध्याया
अब लिया देह में जन्मवा
सुन रे अनाड़ी हमरा मनवा ...
आठों पहर किनी चुगली निंन्दवा
कानों में घोला विष का प्याल्वा
अब पाया प्रभु का चिन्तनवा
सुन रे अनाड़ी हमरा मनवा ...
जन्म डुबोई तूने भोग में रसनवा
कड़वी वाणी बोली कड़वा वचनवा
अब पाया राम नाम का प्रसादवा
सुन रे अनाड़ी हमरा मनवा ...
धन कमाया तूने तोड़ के तनवा
सिर खपाया तूने जोड़ के धनवा
अब खोला प्रभु बैंक में खतवा
सुन रे अनाड़ी हमरा मनवा ...
माटी मिलाय दई माटी में मितवा
बिसराय दियो राम का नामवा
अब जाना हरी का स्वरूपवा
सुन रे अनाड़ी हमरा मनवा ...
हुई गया प्रभु से मिलनवा
सुन रे अनाड़ी हमरा मनवा ...
Comment
आदरणीय मनोज जी,होस्लाफ्जाही के लिए बहुत बहुत धन्यवाद..आभार
अध्यात्म की आधारशिला मन की चंचल वृत्तियों का बेहद सुन्दर चित्रांकन किया है आपने आरती जी ,,,,बहुत सुन्दर
अरे.... मैंने त्रुटियों की कहां बात कही ? मैंने तो केवल यह कहा कि मन की उदात्त प्रकृति को ध्यान में रख एक कविता लिखिए ताकि मेरे मन का दूसरा पहलू भी आनंद उठा सके अभी तो अनाड़ी मनवा ही आनंद उठा सका है
आदरणीय राजेश जी..आप मन को परमेश्वर तभी कह सकते है जब मन पांचो इन्दिरियों को वश में करने क बाद. केवल सत्कर्म का आदेश दे...मेरा भाव मन को अनाड़ी कहने का तब तक था जब तक उसे परमात्मा का बोध नही हुआ था...जब उसने हरी का स्वरुप जान लिया तो अनाड़ी कहाँ रहा...मन के हारे हार है .मन के जीते जीत..मन को जीतने के बाद ही अध्यात्म का रास्ता शुरू होता है..त्रुटियों के लिए क्षमा प्रार्थी हु ..आभार.
'अनाड़ी मनवा' जिस भावभूमि में यह कविता लिखी गई है वह अध्यात्म का क्षेत्र है एवं अध्यात्म में मन तो परमेश्वर है, उस अर्थ में इसे अनाड़ी कहना उचित नहीं लगा, पार्थिव अर्थ में जो मन है उसके अनेक प्रतिरुप हैं, यहां यह सगुणात्मक होकर अपने विदेहपन का परित्याग कर विकानजन्यता को प्राप्त होता है । रचना सुंदर है परंतु मुझ जैसे पाठकों का भी ध्यान रखें जो अर्थ का अनर्थ निकालते हैं, आपकी अगली रचना मेरे दोनों भावों को संतुष्ट करेगी यही कामना है, सादर
सर मेरी रचना आपको गुनगुनाने लायक लगी ..इससे ज्यादा ख़ुशी की बात मेरे लिए और क्या हो सकती है... मुझे मार्गदर्शन की आवश्कता है और सिखने की चाह कभी खत्म नही होती..इस मंच से मुझे बहुत कुछ सीखना है ..आपका बहुत बहुत धन्यवाद ..
वाह आदरणीया आरती जी वाह, मैं तो इस रचना को गुनगुना रहा हूँ , अच्छी रचना हुई है, किन्तु सुधार की बहुत संभावनाएं हैं, बधाई इस प्रस्तुति पर |
आदरणीय भाईसाहब आपको मेरी लिखी रचना पसंद आई,मेरा लेखन कार्य सफल हुआ ..आप गुरु जनो की छाया में बहुत कुछ सीखना है..आभार
माटी मिलाय दई माटी में मितवा,बिसराय दियो राम का नामवा
अब जाना हरी का स्वरूपवा,सुन रे अनाड़ी हमरा मनवा ...
आदमी को सत्य की खोज करने में काफी समय लग जाता है , जीवन भर धन जोड़न में लगा रहता है, जब
आत्मा का स्वरुप पहचानता है तब तक भौतिक शारीर को छोड़ जाने का समय हो जाता है । बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति
की रचना बधाई स्वीकारे आरती शर्मा बहन जी
आपका बहुत बहुत धन्यवाद अरुण जी..आपको मेरी रचना पसंद आई...ये मंच आपकी और आदरनीय सर बागी जी की ही की देन है..यदि आप मुझे प्रेरित नही करते तो ये संभव नही था..आभार
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