माथे पर सलवटें;
आसमान पर जैसे
बादल का टुकड़ा थम गया हो;
समुद्र में
लहरें चलते रूक गयीं हों,
कोई ख्याल आकर अटक गया।
धकियाने की कोशिश बेकार,
सिर झटकने से भी
निशान नहीं जाते।
सावन के बादलों की तरह
घुमड़कर अटक जाता है
वहीं
उसी जगह
उसी बिन्दु पर।
काफी वजनी है;
सिर भारी हो चला
आंखें थक गईं,
पलकें बोझल।
सहा नहीं जाता
इस विचार का वजन।
आदत नहीं रही
इतना बोझ उठाने की;
अब तो घर का राशन भी
भार में इतना नहीं होता कि
आदत बनी रहे।
बहुत देर तक अटका रहा;
वह कोई तनख्वाह तो नहीं
झट खतम हो जाए।
अभी भी अटका है वहीं
सिर को भारी करता।
बहुत देर से कुछ नहीं सोचा।
सोचते हैं भी कहां
सोचते तो क्यों अटकता।
इस न सोचने,
न बोलने के कारण ही
अटक गयी है जिंदगी।
तालाब में फेंकी गई पालीथीन की तरह
तैर रहा है विचार
दिमाग में
सोच की अवरूद्ध धारा में मंडराता।
अब मजबूर हूं सोचने को
कैसे बहे धारा अविरल
फिर न अटके
सिर बोझिल करने वाला
कोई विचार।
- बृजेश नीरज
Comment
संदीप भाई आपका आभार!
आदरणीय विजय निकोर जी,
आपका हार्दिक आभार!
सादर!
आदरणीया प्राची बहन,
आपका आभार! आपकी हौसला अफज़ाई से लिखने का साहस बढ़ा!
भाई केवल प्रसाद जी आपका आभार!
बहुत ही सुंदर रचना है
विचारों का यूँ अटकना और उसे उतनी ही सुंदरता से शब्द दे देना
वाह
बहुत बहुत बधाई आपको वाह आदरणीय वाह
आदरणीय बृजेश जी:
इन उत्कृष्ट भावों के लिए आपको बधाई।
सादर और सस्नेह,
विजय निकोर
आदरणीय बृजेश कुमार जी
मस्तिष्क में यदि कोइ ऐसा विचार अटक जाए जिसके पार जाने का कोइ तरीका न सूझे , तब मन में उपजने वाली बिलबिलाहट को सुन्दर अभिव्यक्ति मिली है ....
बहुत देर तक अटका रहा;
वह कोई तनख्वाह तो नहीं
झट खतम हो जाए ........ यह बिम्ब बहुत अच्छा लगा
शुभकामनाएं
माननीय श्री बृजेश कुमार सिंह जी, सुप्रभात! एक अच्छा चिन्तन और कशिश को झकझोर देने वाली धारा प्रवाह कविता..वाह.वाह..! बहुत.बहुत बधाई..!
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