धीरे धीरे शाम उतर आयी
धरती पर
मेरा इंतजार अभी भी बरकरार है
कि कब तेरा दीदार हो
और मेरी सुब्ह हो
तेरा जज्ब ए अमजद
या चाहत का असर
ओढ़ता बिछाता हूं तुझको
तुझसे ही दिन हो
और मेरी रात हो
तुमने सोचा नहीं
होगा कोई इंतजार में
पथराने लगी आंखें किसी की
तू नजर आए
तो मुझे कुछ आराम हो।
- बृजेश नीरज
Comment
हम नज़्म किसे कहते हैं, भाई ?
आज़ाद नज़्म में भी कहना हो रहा है आजकल .. :-)))))
आदरणीय सौरभ जी,
हो सकता है मेरे समझने में कुछ गलती हुई हो। इतना तो आश्वस्त हूं कि यह गज़ल नहीं है।
सादर!
इस प्रस्तुति को नज़्म क्यों कहा है आपने ?
हुई कोशिश के लिए बधाई.. .
आदरणीय योगी जी आपका आभार!
तेरा जज्ब ए अमजद
या चाहत का असर
ओढ़ता बिछाता हूं तुझको
तुझसे ही दिन हो
और मेरी रात हो
बहुत खूब
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