ये फिजाएं खोलती हैं राज गहरे कई
इस कली में बंद हैं नादान भौंरे कई
हम तो आशिक हैं हमारा क्या बहल जाएंगे
आपके दामन पे हैं ये दाग गहरे कई
देर तक खामोश सी रोती रही जिंदगी
छूटते हैं जो यहां पर थे सहारे कई
इस जहां की दौलतें बेकार होने लगीं
हाथ फैलाए खड़े उसके दुआरे कई
जुल्म कितने बढ़ गए आवाज होती नहीं
अब यहां रहने लगे गूंगे व बहरे कई
- बृजेश नीरज
Comment
आदरणीय सौरभ जी, यह आपके मार्गदर्शन का ही परिणाम है। कुछ सीखने के लिए एक अच्छे गुरू की आवश्यकता होती है। आपने मेरे लिए वह कमी पूरी कर दी है। आपका मार्गदर्शन यदि यूं ही प्राप्त होता रहा तो शायद आगे स्वयं के लेखन में कुछ और सुधार कर सकूं।
सादर!
शिल्प को बाँधे रखा है यह आश्वस्त करता है, बृजेश भाई.
कहन में भी कसावट आ रही है. ..
जुल्म कितने बढ़ गए आवाज होती नहीं
अब यहां रहने लगे गूंगे व बहरे कई .. .. बहुत खूब !
आदरणीय योगी जी आपका आभार!
हम तो आशिक हैं हमारा क्या बहल जाएंगे
आपके दामन पे हैं ये दाग गहरे कई
देर तक खामोश सी रोती रही जिंदगी
छूटते हैं जो यहां पर थे सहारे कई
बहुत सुन्दर अश आर
आदरणीय स्वर्ण जी आपका आभार!
साहित्य समाज का आइना है
ग़ज़ल में कई अच्छे शेयर हैं
which i have liked, thanks
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