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ये फिजाएं खोलती हैं राज गहरे कई

इस कली में बंद हैं नादान भौंरे कई

 

हम तो आशिक हैं हमारा क्या बहल जाएंगे

आपके दामन पे हैं ये दाग गहरे कई

 

देर तक खामोश सी रोती रही जिंदगी

छूटते हैं जो यहां पर थे सहारे कई

 

इस जहां की दौलतें बेकार होने लगीं

हाथ फैलाए खड़े उसके दुआरे कई

 

जुल्म कितने बढ़ गए आवाज होती नहीं

अब यहां रहने लगे गूंगे व बहरे कई

                      - बृजेश नीरज

 

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Comment

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Comment by बृजेश नीरज on March 16, 2013 at 9:23pm

आदरणीय सौरभ जी, यह आपके मार्गदर्शन का ही परिणाम है। कुछ सीखने के लिए एक अच्छे गुरू की आवश्यकता होती है। आपने मेरे लिए वह कमी पूरी कर दी है। आपका मार्गदर्शन यदि यूं ही प्राप्त होता रहा तो शायद आगे स्वयं के लेखन में कुछ और सुधार कर सकूं।
सादर!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 16, 2013 at 9:00pm

शिल्प को बाँधे रखा है यह आश्वस्त करता है, बृजेश भाई.

कहन में भी कसावट आ रही है. ..

जुल्म कितने बढ़ गए आवाज होती नहीं
अब यहां रहने लगे गूंगे व बहरे कई  .. ..  बहुत खूब !

Comment by बृजेश नीरज on March 16, 2013 at 12:40pm

आदरणीय योगी जी आपका आभार!

Comment by Yogi Saraswat on March 16, 2013 at 11:30am

हम तो आशिक हैं हमारा क्या बहल जाएंगे

आपके दामन पे हैं ये दाग गहरे कई

 

देर तक खामोश सी रोती रही जिंदगी

छूटते हैं जो यहां पर थे सहारे कई

बहुत सुन्दर अश आर

Comment by बृजेश नीरज on March 15, 2013 at 8:12pm

आदरणीय स्वर्ण जी आपका आभार!

Comment by Dr. Swaran J. Omcawr on March 15, 2013 at 7:46pm

साहित्य समाज का आइना  है 

ग़ज़ल में कई अच्छे शेयर हैं

which i have liked, thanks 

 

 

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