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कभी कभी

खामोश हो जाते हैं शब्द।

 

जीवन में

कब अपना चाहा होता है

सब।

 

बहुत कुछ अनचाहा

चलता है संग।

इस दीवार से

झरती पपड़ियाँ;

दरारों में उगते

सदाबहार और पीपल;

गमले में सूखता

आम्रपाली।

 

दिये की रोशनी सहेजने में

जल जाती हैं उंगलियाँ।

 

गाँठ खोलने की कोशिश में

ढूंढे नहीं मिलता

अमरबेल का सिरा।

 

तुम

किसी स्वप्न सी खड़ी

बस मुस्कुराती हो।

 

रेत के घरौंदे

बार बार ढह जाते हैं।

 

मैं बस निहारता रह जाता हूँ

मुँह बिराते अक्षरों को।

             - बृजेश नीरज

(मौलिक व अप्रकाशित)

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on July 23, 2013 at 2:21pm

आदरणीय भाई बृजेश जी, इस टिप्पणी के माध्यम मेरा एक छोटा सा निवेदन है आपको भी और अन्य किसीको जिन्हें मेरे नाम के बारे में कोई दुविधा हो. मेरा नाम "शरत + इंदु" अर्थात शरदिंदु है. आप ही नहीं स्कूल जीवन से लेकर अभी तक बहुतों ने सोचा कि यह "शरद" + इंदु है और अनजाने में मुझे "शर्देंदु" कहकर सम्बोधित किया. वैसे तो ' नाम में क्या रखा है?' ......लेकिन फिर भी!!! सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 23, 2013 at 2:00pm

भाई बृजेश जी, यह स्वीकारने में अब मुझे तनिक संदेह नहीं कि आपकी भावप्रवण अभिव्यक्तियाँ एक झटके में देख जाने की चीज़ नहीं हैं. 

प्रस्तुत रचना से मैं इत्मिनान से गुजरना चाहता था. इसे आज भरपूर जीया.

जिस लिहाज़ से प्रस्तुत रचना खुद में अनुभव और अनुभवजन्य भावनाओं को खंगालती है, वह सारा कुछ एक पाठक को अपने साथ बहा ले जाने में सक्षम है.

दिये की रोशनी सहेजने में

जल जाती हैं उंगलियाँ।

 

गाँठ खोलने की कोशिश में

ढूंढे नहीं मिलता

अमरबेल का सिरा..

ग़ज़ब ! होम करते हाथ जलने की विवशता को ही नहीं, उपजी झल्लाहट को भी क्या खूब शब्द मिले हैं !

रेत के घरौंदे

बार बार ढह जाते हैं

पंक्तियों के बिम्ब में कितनी सटीक तथ्यात्मकता है ! 

इधर, अपनत्व के भाव से भरे किसी नितांत अपने का साहचर्य कितनी आत्मीत्यता से बयान हुआ है. सहयोगी का कितना सुन्दर रूप सामने आता है - 

तुम

किसी स्वप्न सी खड़ी

बस मुस्कुराती हो।

वाह !

सही है --

जीवन में

कब अपना चाहा होता है

सब।

यह अवश्य है कि प्रस्तुत रचना में विवशता मुखर है. लाचारी बतियाती है. परन्तु,  यह विवशता निठल्लेपन का पर्याय अथवा उसकी उपज नहीं, बल्कि संलग्न कार्मिक की ज़िन्दा ऊहापोह है जो हार नहीं मानता चाहता, किसी सूरत में .. .

हृदय से बधाई स्वीकारें, बृजेश भाई.

बार-बार बधाई

Comment by बृजेश नीरज on July 22, 2013 at 11:14pm

आदरणीय शर्देन्दु जी आपने मेरे प्रयास को इतना मान दिया, आपका हार्दिक आभार!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on July 22, 2013 at 10:56pm

//जब बहुत कुछ कहने का मन करता है, तब कुछ भी कहने को जी नहीं चाहता//.....आदरणीय बृजेश जी, कवयित्री कलाकार दीप्ती नवल की इन पंक्तियों से मैं अपने भाव व्यक्त करना चाहूंगा, आपकी इस रचना पर प्रतिक्रिया के रूप में.

दिये की रोशनी सहेजने में

जल जाती हैं उंगलियाँ।......असाधारण भाव, सहज और सुंदर अभिव्यक्ति के माध्यम जीवंत होती हुईं. बहुत गहराई तक ले जाती हैं आपकी रचना की हर पंक्ति. सादर.

Comment by बृजेश नीरज on July 22, 2013 at 7:57pm

आदरणीया कुन्ती जी आपका आभार! 

Comment by coontee mukerji on July 21, 2013 at 11:36pm

कौन कहता पत्थर के आँसू नहीं होते?

Comment by बृजेश नीरज on July 20, 2013 at 7:45pm

आदरणीय जितेन्द्र जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by बृजेश नीरज on July 20, 2013 at 7:43pm

आदरणीय अभिनव जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by बृजेश नीरज on July 20, 2013 at 7:43pm

आदरणीया वंदना जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on July 20, 2013 at 5:51pm

""तुम

किसी स्वप्न सी खड़ी

बस मुस्कुराती हो।".................. तुम करीब नही हो,पर ख्वाबों में मुस्कुराती हो.इक दुखद विरह के साथ, बड़ी अजीब सी खूबसूरती है..इस पंक्ति में !

                            

रेत के घरौंदे

बार बार ढह जाते हैं।................बार बार उम्मीदों का टूट जाना..!  आदरणीय..बृजेश जी, अथाह गहराइयों में , गहरे भावों से ओत               प्रोत...रचना पर, आपको दिल की गहराइयों से बधाई.... !

सादर!

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