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बार बार भीड़ में

ढूँढता हूँ

अपना चेहरा

 

चेहरा

जिसे पहचानता नहीं

 

दरअसल

मेरे पास आइना नहीं

पास है सिर्फ

स्पर्श हवा का

और कुछ ध्वनियाँ

 

इन्हीं के सहारे

टटोलता

बढ़ता जा रहा हूँ

 

अचानक पाता हूँ 

खड़ा खुद को

भीड़ में

अनजानी, चीखती भीड़ के

बीचों बीच

 

कोलाहल सा भर गया

भीतर तक

कोई ध्वनि सुनाई नहीं देती

शब्द टकराकर बिखरने लगे

 

मैं ढूँढता हूँ 

गुलाब की इन

बिखरी पंखुड़ियों पर जमा

ओस की बूँदों में

अक्स

लेकिन वहां है

सिर्फ अकेली टहनी

 

शायद इस घास पर हो

पद चिन्ह

पर यहाँ मिली

एक लकीर

जिस पर होकर

गुजर रही हैं चींटियां

 

चींटी, घास, पंखुड़ी, ओस

सब बेखबर हैं उस भीड़ से

जो घेरे है मुझे

भीतर बाहर

 

अब मैं पकड़ना चाहता हूँ

हवा को

लेकिन हवा गर्म है

और ध्रुवान्तों की

बर्फ पिघल रही है

नदी में पानी बढ़ रहा

और इस भीड़ में खोया

मैं चिंतित हूँ

अपने उस चेहरे के लिए

जिसे पहचानता नहीं

लेकिन जिसके

पिघलने का खतरा है।

                    -  बृजेश नीरज

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by shubhra sharma on August 6, 2013 at 10:49am

आदरणीय ब्रजेश ,जी  सुन्दर और शानदार प्रस्तुति के लिय बधाई 

Comment by अरुन 'अनन्त' on August 6, 2013 at 9:47am

आदरणीय बृजेश भाई जी अंतर्मन से निकली सुन्दर भावों की माला को पिरोती इस शानदार प्रस्तुति पर ढेरों बधाइयाँ.

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on August 6, 2013 at 9:32am

आदरणीय बृजेश जी,

सशक्त भाव से ओत प्रोत रचना अभिव्यक्ति पर, हार्दिक बधाई स्वीकार करें

Comment by Sarita Bhatia on August 6, 2013 at 7:05am

आदरणीय ब्रिजेश जी शानदार अभिव्यक्ति है 

Comment by बृजेश नीरज on August 5, 2013 at 9:57pm

आदरणीया प्राची जी आपका हार्दिक आभार! 

Comment by बृजेश नीरज on August 5, 2013 at 9:55pm

आदरणीय राज भाई आपका हार्दिक आभार!

Comment by बृजेश नीरज on August 5, 2013 at 9:54pm

आदरणीया महिमा श्री जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by बृजेश नीरज on August 5, 2013 at 9:53pm

आदरणीया विनीता जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by बृजेश नीरज on August 5, 2013 at 9:52pm

आदरणीया अन्नपूर्णा जी आपका हार्दिक आभार!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on August 5, 2013 at 9:26pm

अपने चेहरे को अपने ही अंतर्दर्पण में देखना चाहिये अन्यथा,..... कभी भी रूख बदलती गर्म हवाएं और अंतर्मन की शान्ति को अपने कोलाहल से ध्वस्त कर देने वाली भीड़ की हर दिशा से भेदती आती चीखें..उस चेहरे के उभरने से पहले ही उसे पिघला देती हैं गला देती हैं...

इस अविश्वसनीय अपनों की भीड़ में स्वयं के सत्य स्वरुप को ढूंढती रचना और प्रयुक्त कई  बिम्ब बहुत पसंद आये.

हार्दिक बधाई 

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