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ग़ज़ल : सिर्फ़ कचरा है यहाँ आग लगा देते हैं

बह्र : २१२२ ११२२ ११२२ २२

-----------

धर्म की है ये दुकाँ आग लगा देते हैं

सिर्फ़ कचरा है यहाँ आग लगा देते हैं

 

कौम उनकी ही जहाँ में है सभी से बेहतर

जिन्हें होता है गुमाँ आग लगा देते हैं

 

एक दूजे से उलझते हैं शजर जब वन में

हो भले खुद का मकाँ आग लगा देते हैं

 

नाम नेता है मगर काम है माचिस वाला

खोलते जब भी जुबाँ आग लगा देते हैं

 

हुस्न वालों की न पूछो ये समंदर में भी

तैरते हैं तो वहाँ आग लगा देते हैं

 

आप ‘सज्जन’ हैं मियाँ या कोई चकमक पत्थर

जब भी होते हैं रवाँ आग लगा देते हैं

------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by shubhra sharma on September 2, 2013 at 10:45pm

 आदरणीय धर्मेन्द्र जी , बहुत खूब गजल बनी है , बधाई 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 2, 2013 at 1:12pm

आदरणीय धर्मेन्द्र भाई ,लाजवाब गज़ल कही , वाह !!

नाम नेता है मगर काम है माचिस वाला

खोलते जब भी जुबाँ आग लगा देते हैं -- दाद कुबूल कीजिये !!

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