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ग़ज़ल -निलेश 'नूर'--उठेगी जब तेरी अर्थी

उठेगी जब तेरी अर्थी, ये नज्ज़ारा नहीं होगा,

चिता को आग देगा, क्या, तेरा प्यारा नहीं होगा?
.

हमारे आंसुओं को तुम जगह लब पर ज़रा दे दो.

यकीं जानों कि इनका ज़ायका खारा नहीं होगा.
.

नज़र मुझ से मिलाकर अब ज़रा वो बेवफ़ा देखे,

फिर उसके पास मरने के सिवा चारा नहीं होगा.
.

बहुत से लोग दुनियाँ में भटकते है मुहब्बत में,

जहां भर में कोई सूरज सा आवारा नहीं होगा.
.

ठहरता ही नहीं है ये कहीं भी एक भी पल को,

समय सा कोई भी फक्कड़ या बंजारा नहीं होगा.
.

ज़रा सोचो, किसी को यूँ ही बेचारा न तुम कह दो,

कि साया माँ का जिस पे हो वो बेचारा नहीं होगा.
.

वो इंसाँ हो नहीं सकता, ख़ुदा होगा यक़ीनन वो,

लड़ाई खुद की खुद से, जो कभी हारा नहीं होगा.
.

मिली है जिंदगी तुम नेक नीयत से बढ़ो आगे,

तुम्हारे पास मौका फिर ये दोबारा नहीं होगा.
.

तुम्हारे बाद ऐ ग़ालिब सुखनवर होंगे कितनें ही,

पर उनकी रोशनाई में वो उजियारा नहीं होगा.
.

चलो अंधी सुरंग के पार चलते है जहां बिखरा

ख़ुदा का ‘नूर’ होगा और अँधियारा नहीं होगा. 
............................................................
मौलिक व अप्रकाशित 
निलेश 'नूर'

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Comment by गिरिराज भंडारी on November 13, 2013 at 10:21pm

आदरणीय निलेश भाई , आपने सही कहा , गालिब वाला शेर सही है !!!!

चलो अंधी  सुरंग के पार चलते है जहां बिखरा    -- मे सुरंग    शायद अब भी गलत बंधा है , 121 होना चाहिये  जैसे आपने अंधी  को  22  मे बान्धा है !!!! आपने सुरंग को 12 मे बांधा है !!!  अगर कोई विषेश छूट मिलती हो तो वो मै नही जानता  सामान्य तया रंग को 21 मे बांधा जाता है !!!!  सादर !!!!

Comment by Nilesh Shevgaonkar on November 13, 2013 at 9:59pm

शुक्रिया शकील भाई, आदरणीय डॉ गोपाल नारायण जी, डॉ आशुतोष जी, गिरिराज जी, सरिता जी ... ग़ज़ल आप तक पहुच कर मुकम्मल हो गई है .. आभार ..
आदरणीय गिरिराज  जी मात्रा भार ..१२२२/१२२२/१२२२/१२२२ है ...   तक्तीअ कुछ यूँ है ..
.

तुम्हारे बाद ऐ ग़ालिब सुखनवर होंगे कितनें ही,
१२२२/१२२२/१२२२/१२२२ ... गे को गिरा कर पढ़ा है 

पर उनकी रोशनाई में वो उजियारा नहीं होगा.
पर उनकी में अलिफ़ वस्ल कर के परून की रो (१२२२) शनाई में (१२२२) ऐसा पढ़ा है ... फिर भी कोई अन्य सुझाव हो बेहतरी के लिए तो मै बदलाव के लिए तैयार हूँ ...
,
आभार 
 
.

चलो अंधी सुरंग के पार चलते है जहां बिखरा

ख़ुदा का ‘नूर’ होगा और अँधियारा नहीं होगा.  

Comment by Sarita Bhatia on November 13, 2013 at 6:03pm

बहुत खूब नूर जी हार्दिक बधाई 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on November 13, 2013 at 5:22pm

आदरणीय नीलेश भाई , लाजवब , कामयाब गज़ल के लिये आपको ढेरों बधाई !!!!! मात्रा वज़्न आपने नही लिखा है तो मै कह नही सकता , पर आखरी के दो शे र देख लीजियेगा , शायद मात्र्रा गड़बड़ हों !!!!! अगर सही हों तो क्षमा करें !!!!

Comment by Dr Ashutosh Mishra on November 13, 2013 at 12:36pm

बेहद शानदार ग़ज़ल ..हर शेर उम्दा ..मेरी तरफ से हार्दिक बधाई,

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 13, 2013 at 11:48am

नूर भाई    

आप तो कोहिनूर है

कोई भी शेर हल्का नहीं  है

आपने शेर नहीं कहा

मोतियों कि माला पिरोई है              बहुत बहुत मुबारक    दिल से---

Comment by शकील समर on November 13, 2013 at 11:09am

हमारे आंसुओं को तुम जगह लब पर ज़रा दे दो.

यकीं जानों कि इनका ज़ायका खारा नहीं होगा.

वाह आदरणीय निलेश जी, क्या लहजा है!!

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