२ १ २ २ १ १ २ २ १ १ २ २, २ २ /११२
दिल के ज़ख्मों से उठी जब से गुलाबी ख़ुशबू,
शह्र में फ़ैल गई मेरी वफ़ा की ख़ुशबू.
...
ये महक, बात नहीं सिर्फ हिना के बस की,
गोरी के हाथों महकती है पिया की ख़ुशबू.
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फूल को ख़ुद में समेटे हुए थी कोई क़िताब,
फूल से आने लगी आज क़िताबी ख़ुशबू.
...
वो कडी धूप में निकले तो हुआ यूँ महसूस,
जैसे निकली हो पसीने में नहाती ख़ुशबू.
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चंद लम्हात गुज़ारे थे तुम्हारे नज़दीक़,
बस उसी रोज़ से पहनी है तुम्हारी ख़ुशबू.
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दिल के जंगल में खिला याद का महुआ जो कभी,
‘नूर’ को याद बहुत आई कुँवारी ख़ुशबू.
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निलेश 'नूर'
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
धन्यवाद आदरणीय अरुण जी, सौरभ जी राजेश कुमारी जी ..... आभार
जी नीलेश जी मेरा संशय दूर हुआ हार्दिक धन्यवाद ,पुनः ग़ज़ल की बधाई
वाह भाईजी वाह ! बहुत खूब !!
आदरणीय निलेश जी बहुत ही बढ़िया खुशबूनुमा ग़ज़ल पेश की है आपने
वाह वाह दिली मुबारकबाद कुबूल फरमाएं.
सभी मित्रो का धन्यवाद ... आत्याधिक व्यस्तता के चलते और रिमोट एरियाज में काम करने के कारण इन्टरनेट दूर था अत: आभार प्रदर्शित नहीं कर पा रहा था ... क्षमा चाहता हूँ.
आदरणीय वीनस जी ... आप से दाद मिली तो जिंदगी मिल गई ....धन्यवाद स्नेह बनाए रखिये ... सभी को धन्यवाद
आदरणीय राजेश कुमारी जी "फूल को ख़ुद में समेटे हुए थी कोई क़िताब" इस मिसरे की तक्तीअ कुछ यूँ की है
फूल को ख़ुद में समेटे हुए थी कोई क़िताब
२..१..२...२/१....१.२.२./१२.१...२/१..१..२ +१ ....
आप ने ग़ज़ल की सराहना की ..बहुत बहू आभार .. सभी को पुन: धन्यवाद
जियो भाई
अच्छी ग़ज़ल कह दी
भई वाह वा
बहुत खूब
वो कडी धूप में निकले तो हुआ यूँ महसूस,
जैसे निकली हो पसीने में नहाती ख़ुशबू..........उम्दा यह शेर बहुत पसंद आया
आदरणीय निलेश जी, हार्दिक बधाई आपको///सादर
आदरणीय नूर जी ..वो कडी धूप में निकले तो हुआ यूँ महसूस,
जैसे निकली हो पसीने में नहाती ख़ुशबू. ..हर शेर उम्दा ..कई बार पढ़ा ..बड़ी नजाकत से कही है अपने हर बात ..तहे दिल बधाअयीए के साथ
वाह्ह्ह बहुत सुन्दर शालीन भाव पूर्ण उम्दा ग़ज़ल नीलेश जी
दिल के ज़ख्मों से उठी जब से गुलाबी ख़ुशबू,
शह्र में फ़ैल गई मेरी वफ़ा की ख़ुशबू.--------------------वाह क्या रुमानियत अंदाज भरा मतला
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ये महक, बात नहीं सिर्फ हिना के बस की,
गोरी के हाथों महकती है पिया की ख़ुशबू.------सच कहा हाथों में महक ना होती तो हिना भी किस काम कि
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फूल को ख़ुद में समेटे हुए थी कोई क़िताब, ------उला का वज्न एक बार जांच लें --एक इस्स्लाह (खुल गया फूल लिए कोई किताबी पन्ना )
फूल से आने लगी आज क़िताबी ख़ुशबू.
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वो कडी धूप में निकले तो हुआ यूँ महसूस,-----वाह्ह्ह्ह
जैसे निकली हो पसीने में नहाती ख़ुशबू.
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चंद लम्हात गुज़ारे थे तुम्हारे नज़दीक़,
बस उसी रोज़ से पहनी है तुम्हारी ख़ुशबू. -----बेहतरीन बेहतरीन
बहुत बहुत सुन्दर दिली दाद कबूलें इस ग़ज़ल पर
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दिल के जंगल में खिला याद का महुआ जो कभी,
‘नूर’ को याद बहुत आई कुँवारी ख़ुशबू.
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