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निरंतरता .... (विजय निकोर)

निरंतरता

 

निरंतरता?

निरंतरता क्या है?

यही न

कि पलक के झपकते ही यहाँ

सब बदल जाता है निरंतर

उतर-उतर जाता है दिन

फिसलते हर पल की तरह ...

मेरे उसे जी लेने से पहले

 

बार-बार

बदल-बदल जाने की निरंतरता

 

"कल के वायदे

कल के थे

आज की बात कुछ और"

मात्र इतना ही कह कर

बदल जाते हैं दिल ...

हाथ में आया न आया तब

सब छूट जाता है, टूट जाता है

मन का नियंत्रण

मिट्टी के खिलोने की तरह

 

बार-बार

टूट-टूट जाने की निरंतरता ...

 

परछाईं भी हिलती है, सहमी, दबे पाँव

पेड़ों की फैली नंगी बाहों के बीच

उड़ते सूखे पत्ते भी भागते हैं

दूर, पेड़ों से... अपनों से ... डरते

बचे हुए कुछ पत्तों की सर-सर से

टूट जाता है वक्त का ठहराव

मौसम-पेड़-पत्ते सह लेते हैं बदलाव... सभी

एक मेरे सिवा

रह जाए न अभाव ... एकाकीपन का

कुछ और अकेला हो जाता हूँ

 

बार-बार

एकाकीपन की निरंतरता ...

 

निरंतरता के नाम

किया नहीं है क्या हमने

किसी से प्यार? 

चिपकी हैं हृद्य के शीशे पर

रिश्तों की धूल की परतें ... सीने में

------

-- विजय निकोर

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by Dr Ashutosh Mishra on November 26, 2013 at 7:04pm

आदरणीय सर ...बेहतरीन भावो से सजी उम्दा रचना ..आपकी रचनाओं में चिंतन की विविधता सतत कुछ न कुछ सीखने का सुअवसर प्रदान करती है ..हार्दिक बधाई..सादर प्रणाम के साथ 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on November 26, 2013 at 2:19pm

आदरणीय बड़े भाई विजय जी , बहुत सुन्दर भावों से पगी आपकी रचना के लिये आपको हार्दिक बधाई !!!!

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 26, 2013 at 12:38pm

माननीय  मित्र निकोर जी

सच पूछिए तो आप मेरे फेवरिट है  i

जैसे ही आपका नाम  देखता हूँ  दिल धडकने लगता है

कि इस बार कौन  सी सौगात लाये है i

मै आपसे निरंतर प्रेरणा पाता हूँ  i

 ईश्वर यह   निरंतरता    बनी रहे

अद्भुत भाव , अद्भुत --------


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on November 26, 2013 at 10:58am

"कल के वायदे

कल के थे

आज की बात कुछ और"

मात्र इतना ही कह कर

बदल जाते हैं दिल ...

आपकी ये पंक्तियाँ आज के स्वार्थी समाज का आईना है। आदरणीय विजय निकोर सर आपकी इस रचना ने दिल छू लिया है, आपके जीवन का अनुभव मोती की शक्ल में कविता रूपी हार में पिरोया हुआ लग रहा है,बधाई आपको

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