For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

आँखों देखी 11 -  रोमांचक 58 घंटे

 

        मैंने आँखों देखी 9 में ऑक्टोबर क्रांति से जुड़े कार्यक्रम में भाग लेने के लिए रूसी निमंत्रण की ओर इशारा किया था. फिर, हम लोगों के समुद्र के ऊपर पैदल चलने की बात याद आ गयी. सो, पिछली कड़ी (आँखों देखी 10) में रूसी निमंत्रण की बात अनकही ही रह गयी थी. आज मैं आपको वही किस्सा सुनाने जा रहा हूँ.

        हमारे स्टेशन में उनके एक सदस्य की शल्य चिकित्सा के बाद रूसी कुछ विशेष रूप से आभार व्यक्त करने की सोच्र रहे थे. अत: रूस में समाजवाद लाने का श्रेय जिसे दिया जाता है, उस ऑक्टोबर क्रांति दिवस के उपलक्ष्य में निमंत्रण देने के लिए बहुत ही ख़राब मौसम के बावजूद उनके दलनेता और 5-6 वरिष्ठ सदस्य एक दिन अपने विशाल armored carrier जैसी गाड़ी लेकर दक्षिण गंगोत्री पहुँच गए. लगभग zero visibility में वे कैसे 90 कि.मी. की दूरी तय करके आये यह कहना मुश्किल है लेकिन उनके लम्बे अनुभव के कारण ही ऐसा सम्भव हो सका था, इस बारे में कोई संदेह नहीं. उन्होंने हमारे साथ औपचारिक वार्ता की, हमें निमंत्रण दिया और यह भी प्रस्ताव रखा कि हममें से 6-7 लोग उनकी गाड़ी में ही जा सकते हैं. लेकिन भारतीय शान की बात थी अत: हमारे दलनेता ने यह प्रस्ताव सविनय अस्वीकार किया और मौसम ठीक होने की प्रतीक्षा करने लगे. रूसी भी दो दिन ठहर गए. फिर उन्होंने वापस जाने का निर्णय लिया .यह तय हुआ कि उनकी गाड़ी आगे-आगे जाएगी और उस गाड़ी का ट्रैक देखकर हमारी गाड़ी उनके पीछे नोवो स्टेशन तक पहुँच ही जाएगी. भारतीयों में जब जोश चढ़ता है तो वे कुछ भी करने को तैयार रहते हैं. बेहद खराब मौसम में ही एक ‘पिस्टन बुली’ को किसी तरह तैयार किया गया. पीछे के केबिन में खाने का सामान, स्लीपिंग बैग, जैकेट, एमर्जेंसी स्टोव, दवाएँ आदि रखे गए जिनसे केबिन का आधे से अधिक स्थान भर गया. बाकी जगह में चार सदस्य किसी तरह सिमटकर बैठ गए. सामने चालक और उसके बगल में एक और सदस्य. स्टेशन में जो रह गए उन पर दायित्व था दलनेता और अन्य सदस्यों की अनुपस्थिति में सब कुछ संभालना.

 

          रूसियों ने गाड़ी स्टार्ट की और चल दिये. कुछ दूर तक हमारे साथियों की पिस्टन बुली उनके पीछे जाने में सक्षम हुई लेकिन फिर – या तो रूसियों की गाड़ी की गति तेज़ हो गयी थी, या फिर बर्फ़ के तूफ़ान ने और अधिक ज़ोर पकड़ लिया था. बहरहाल, रूसियों की गाड़ी अब दिखाई नहीं दे रही थी. हम लोग स्टेशन से अपने साथियों के साथ और रूसियों के साथ रेडिओ पर लगातार सम्पर्क बनाए हुए थे. रूसी गाड़ी के ओझल होते ही ‘घुप्प सफेदी’ (total white-out) में हमारे दल के चालक का दिशा ज्ञान शून्य हो गया था. अत: शीघ्र ही निर्णय लिया गया कि आगे न बढ़कर कुछ देर तक रुक लिया जाए और मौसम के ठीक होने की प्रतीक्षा की जाए. लेकिन मौसम को कुछ और ही मंज़ूर था....हवा की गति तेज़ हो गयी और यंत्रों के माध्यम से प्राप्त उपग्रही चित्रों (satellite picture) ने हमें बताया कि अगले तीन चार दिन तक इस भयावह तूफान से कोई राहत नहीं मिलने वाली थी. हमारे डॉक्टर रेडिओ द्वारा पिस्टन बुली में फँसे हमारे साथियों को लगातार सुझाव दे रहे थे कि वे कैसे ख़ुद को गर्म रख सकते हैं. हमारी आँखें उस यंत्र पर जमी हुई थीं जिससे उपग्रही चित्र लिए जा रहे थे. सारी आशाओं और प्रार्थना के बावजूद प्रकृति का अट्टहास तीव्र से तीव्रतर होता जा रहा था. हमें ख़बर मिली कि गाड़ी के अंदर बहुत ही सीमित जगह में सबके हाथ और विशेषकर पैर की माँसपेशियाँ खिंचने लगी थीं. ठंड और ऊपर से अपर्याप्त भोजन का असर धीरे-धीरे हावी होने लगा था. बिस्कुट, सूखे मेवे, चॉकोलेट आदि का पर्याप्त भण्डार उनके पास था जिससे 5-6 दिन बिना नियमित भोजन के चल सकता था लेकिन स्थान की कमी, गाड़ी के अंदर सिकुड़कर बैठे रहने की मजबूरी और लगातार लम्बे समय तक बहुत कम तापमान में रहने के कारण एक ऐसा मानसिक दबाव था सब पर कि हम अपने स्टेशन के आरामदेह परिवेश में भी चरम संभाव्य परिणति की कल्पना से ही बेहद चिंतित थे. डॉक्टर को डर लग रहा था कि किसीको हाईपोथर्मिया अर्थात अपताप न हो जाए. ऐसे में शरीर का तापमान सहनीय स्तर से नीचे चला जाता है और शरीर की स्वाभाविक क्रियाएँ धीरे-धीरे बंद होने लगती हैं. यह बहुत चिंताजनक स्थिति होती है क्योंकि ऐसे रोगी की तुरंत सुश्रूषा न हो तो जीवन संशय हो सकता है.

 

        रूसी गाड़ी के ओझल होने के बाद तूफ़ान में पिस्टन बुली रुक जाने से लेकर 6-7 घंटे तक न ही उन 6 साथियों में और न ही स्टेशन में कोई दुश्चिंता उत्पन्न हुई थी. जब तीस घंटे से अधिक हो गया तो हमने पाया कि गाड़ी में फँसे साथियों से सम्पर्क कमज़ोर पड़ता जा रहा है. वे थके थे और स्वाभाविक रूप से बेचैन हो उठे थे. हम सभी अपनी जगह पर अपने-अपने ढंग से सोच रहे थे कि क्या उपाय किया जाए. एक नयी समस्या सर उठा रही थी. पिस्टन बुली में वे लोग जो बैटरी पैक साथ ले गए थे उसकी क्षमता ठण्ड के कारण तेज़ी से क्षीण होती जा रही थी. इसका अर्थ स्पष्ट था. कुछ घंटे बाद वे संचार के उपलब्ध साधन चार्ज करने में असमर्थ हो जाएँगे. गाड़ी का इंधन बचा कर रखने के लिए वे गाड़ी भी लगातार स्टार्ट करके नहीं रख सकते थे. अत: हम तटस्थ थे. यदि संचार सम्पर्क टूट गया तो उनका मनोबल टूट जाएगा और तब विषम परिस्थिति से लड़ने की क्षमता भी खत्म होती जाएगी.

 

        अड़तालीस घंटे बीत चुके थे, छह लोग छोटे से पिस्टन बुली में क़ैद थे प्रकृति के हाथों. जो थोड़ा बहुत सम्पर्क हो रहा था हमारे बीच उससे हमें आभास हुआ कि हमारे साथी अब अधीर हो उठे हैं और स्टेशन वापस आने के लिए कोई सख़्त उपाए ढूँढ़ना चाहते हैं. अधीरता हमारे स्टेशन में भी दिखाई दे रही थी. कुछ लोगों का मत था कि हम एक दूसरी गाड़ी लेकर उनकी सहायता के लिए पहुँचे. लेकिन इस प्रस्ताव को अमल में लाना लगभग असम्भव दिखता था. हमें यदि उन तक पहुँचने में सफलता मिल सकती तो वे भी वापस आ सकते हैं – यही सोचकर प्रतीक्षा करना ही तय हुआ. रूसियों से भी मदद लेने की सोची गयी लेकिन भारतीय स्वाभिमान आड़े आया.
 

        शायद 52 घंटे बीत चुके थे जब अचानक ही पिस्टन बुली से घोषणा की गयी कि वे स्टेशन के लिए चल पड़े हैं. हम सब सन्न रह गए. दृष्टि अभी भी मात्र दो-तीन मीटर तक ही जा रही थी. वे लोग हमसे 7-8 कि.मी. दूर थे – कैसे उस व्हाईट आऊट में वापस आ पाएँगे!
       

        इस घोषणा को सुनते ही हमने स्टेशन के बाहर की सारी लाईट जला दी जिससे उड़ती बर्फ़ के पर्दे के बीच से उन्हें प्रकाश दिख जाए और दिशा मिल जाए. लगभग और एक घंटे बाद हमलोगों ने रुक-रुक कर फ़्लेयर गन दागने शुरु किए. प्रकाश का एक गोला सा बंदूक के सहारे आसमान में ऊपर तक चढ़ता और मानो पिस्टन बुली को ढूँढ़ता हुआ निराश होकर फिर से धरती पर वापस आ जाता. कुछ समय बाद ही उन्हें एक फ़्लेयर दिख गया. हम सब खुश थे. अब उनकी गति तेज़ हो गयी थी. हमने और फ़्लेयर दागे. वे दौड़ते चले आ रहे थे. हम लोग भी स्टेशन की छत के ऊपर जा कर बैठ गए और तमाम लाईट के रहते हुए भी बड़े टॉर्च जलाकर हिलाने लगे ठीक जैसे एक ट्रेन का गार्ड अपनी गाड़ी के चालक को दिखाता है. हमें पिस्टन बुली का प्रकाश नहीं दिख रहा था. जब काफ़ी देर हो गयी तो हम सभी को संदेह हुआ कि गाड़ी ठीक दिशा में आ भी रही है या नहीं! हमने उनसे कहा कि रुकें और अगला फ़्लेयर देखने की कोशिश करें. हमने एक के बाद एक तीन फ़्लेयर दागे और सुनकर अवाक रह गए कि वे उन्हें अपनी गाड़ी के पीछे की ओर कुछ दूरी पर देख रहे थे. वास्तव में वे स्टेशन से थोड़ी दूर से गुजरे थे और स्टेशन की लाईट न दिखाई देने के कारण वे उस स्थान को पार करके समुद्र की ओर चले गए थे. ख़ैर, अब कोई भूल नहीं हुई और शीघ्र ही उन्हें स्टेशन की लाईट दिख गयी. ठीक 58 घंटे बाद हमारे साथी हमारे बीच वापस आ गये थे – बुरी तरह से थके हुए लेकिन आत्मविश्वास से पूर्ण.
       

       मैंने उनसे कौतूहलवश पूछा था कि जब उन्होंने वापसी यात्रा शुरु की तो कैसे, किस दिशा में चलना तय किया! उनका उत्तर सुनकर हम सभी हैरान रह गए. मेरे वरिष्ठ साथी जो भूविज्ञानी हैं और उसी पिस्टन बुली में थे, ने ही यह प्रस्ताव रखा था. उन्होंने कहा था कि रूसी गाड़ी भारी होने के कारण उसकी ट्रैक का निशान शेल्फ़ की बर्फ़ीली सतह पर अवश्य पड़ा होगा. गाड़ी को पीछे घुमाकर यदि उस निशान को देखते हुए चला जाए तो दक्षिण गंगोत्री पहुँचा जा सकता है. लेकिन ट्रैक को देखने के लिए बर्फ़ पर पेट के बल लेटकर रेंगते हुए चलना होगा बारी-बारी सभी को. उनको देखते हुए चालक गाड़ी को धीरे-धीरे लेकर चल सकता है. मिसाल रखने के लिए वे स्वयं सबसे पहले उस तूफ़ान में बाहर निकले. फिर जैसा सोचा था वैसा ही होने लगा. जब उन्हें फ़्लेयर दिख गया था तो रास्ता ढूँढ़कर चलने की आवश्यकता नहीं थी. वे गाड़ी के अंदर बैठ गए थे. इसी चूक के कारण वे स्टेशन की सही दिशा को खो दिए थे और समुद्र की ओर निकल गए थे.

        सब भला जो अंत भला. गर्म खाना खाकर और गर्म पानी से नहाकर वे विश्राम के लिए गए. हम सब भी निश्चिंत होकर बिस्तर पर ढेर हो गए – जगे रहे केवल स्टेशन ड्यूटी वाले दो साथी और यंत्रों में लगी हुई जलती-बुझती बत्तियाँ.

 

(मौलिक तथा अप्रकाशित सत्य घटना)

Views: 718

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by बृजेश नीरज on January 30, 2014 at 10:37pm

 रोमांच हो उठा पढ़कर! ऐसी दशा में फंसे होने की सोचकर रूह काँप जाती है!

इस अनुभव को साझा करने के लिए आपका हार्दिक आभार!

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

धर्मेन्द्र कुमार सिंह posted a blog post

जो कहता है मज़ा है मुफ़्लिसी में (ग़ज़ल)

1222 1222 122-------------------------------जो कहता है मज़ा है मुफ़्लिसी मेंवो फ़्यूचर खोजता है लॉटरी…See More
yesterday
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा सप्तक. . . सच-झूठ

दोहे सप्तक . . . . . सच-झूठअभिव्यक्ति सच की लगे, जैसे नंगा तार ।सफल वही जो झूठ का, करता है व्यापार…See More
yesterday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर posted a blog post

बालगीत : मिथिलेश वामनकर

बुआ का रिबनबुआ बांधे रिबन गुलाबीलगता वही अकल की चाबीरिबन बुआ ने बांधी कालीकरती बालों की रखवालीरिबन…See More
yesterday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक ..रिश्ते
"आदरणीय सुशील सरना जी, बहुत बढ़िया दोहावली। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई। सादर रिश्तों के प्रसून…"
yesterday
Ashok Kumar Raktale replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 156 in the group चित्र से काव्य तक
"  आदरणीय सौरभ जी सादर प्रणाम, प्रस्तुति की सराहना के लिए आपका हृदय से आभार. यहाँ नियमित उत्सव…"
Sunday
Ashok Kumar Raktale replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 156 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीया प्रतिभा पाण्डे जी सादर, व्यंजनाएँ अक्सर काम कर जाती हैं. आपकी सराहना से प्रस्तुति सार्थक…"
Sunday
Hariom Shrivastava replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 156 in the group चित्र से काव्य तक
"आपकी सूक्ष्म व विशद समीक्षा से प्रयास सार्थक हुआ आदरणीय सौरभ सर जी। मेरी प्रस्तुति को आपने जो मान…"
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 156 in the group चित्र से काव्य तक
"आपकी सम्मति, सहमति का हार्दिक आभार, आदरणीय मिथिलेश भाई... "
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 156 in the group चित्र से काव्य तक
"अनुमोदन हेतु हार्दिक आभार सर।"
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 156 in the group चित्र से काव्य तक
"आ. भाई सौरभ जी, सादर अभिवादन।दोहों पर उपस्थिति, स्नेह और मार्गदर्शन के लिए बहुत बहुत आभार।"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 156 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय सौरभ सर, आपकी टिप्पणियां हम अन्य अभ्यासियों के लिए भी लाभकारी सिद्ध होती रही है। इस…"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 156 in the group चित्र से काव्य तक
"हार्दिक आभार सर।"
Sunday

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service