आँखों देखी 10 जमे समुद्र के ऊपर पैदल
मैं पहले ही कह चुका हूँ कि दो महीने तक अँधेरे में रहने के बाद जुलाई 1986 के अंतिम सप्ताह में हमने पहला सूर्योदय देखा. जैसे-जैसे आसमान में सूर्य की अवस्थिति बढ़ती गयी मौसम खुशनुमा होता गया. अच्छे मौसम का स्वागत करके हम अधिक से अधिक समय स्टेशन के बाहर बिताने लगे थे. मैंने इस बदलते समय के साथ अपने साथियों के अच्छे होते हुए मूड का सदुपयोग करने का निश्चय किया. ‘हिमवात’ की तैयारी में पूरी तरह जुट गया था. दल के सभी सदस्यों को उस घरेलू पत्रिका में कुछ-न-कुछ लिखने के लिये प्रोत्साहित करने लगा. धीरे-धीरे सभी से सहयोग मिलता रहा. भारतीय थल सेना के कुछ जवानों को जिन्हें आमतौर पर लेखन या पठन-पाठन से कोई लेना-देना नहीं था, उन्हें भी मैंने लिखने को प्रेरित किया. मुझे प्रसन्नता और गर्व है कि केवल एक को छोड़कर सभी ने अपने सामर्थ्य के अनुसार सहयोग किया. एक-दो सदस्य ऐसे थे जिन्होंने हस्ताक्षर करने के अलावा कभी कलम चलाया ही नहीं था. मैंने उन्हें पास बैठाकर बातें करने को बाध्य किया और उन बातों को लिपिबद्ध करके उनके नाम से ही लेख लिखा. अंटार्कटिका ने उन सभी को भावुक बना दिया था – एक अर्थ में सभी का कवि मन कुछ समय के लिये प्रस्फुटित हो उठा था. पत्रिका को निकालने का जोश था अत: सितम्बर आते-आते हमारी व्यस्तता बढ़ गयी थी. मैंने स्वयं उसमें कम से कम एक कहानी और दो कविताओं का योगदान दिया था. आज मेरे पास उस पत्रिका की कोई प्रति नहीं है – 27 वर्षों में न जाने कहाँ चली गयी वह प्रति जो मैं वहाँ से साथ लाया था ! फिर भी डायरी पलटने पर एक कविता हाथ लगी जिसे मैंने ‘हिमवात’ के लिये लिखा था. आपसे साझा करता हूँ :
अंटार्कटिका प्रणाम
नमस्ते अंटार्कटिका देवी, शुष्क, शुभ्र वसुंधरा
नमस्ते रहस्यावृता धरणी, भयंकरा माँ अनुर्वरा.
नमस्ते देवी गरिमामयी, निष्कलुष तुषारावृता
नमस्ते क्षुब्ध मातृका, मोहिनी रूपेण वंदिता.
नमस्ते माँ अभागिनी, शस्य श्यामल वंचिता
नमस्ते रत्नगर्भे देवी, रत्नाकरे परिवृता.
नमस्ते चिरतपस्विनी, शत सहस्र योजन व्याप्तिता
नमस्ते माँ शांतिमयी, स्वर्गलोके सुशोभिता.
नमस्ते जग पाद पद्मे, शुभ्र कुसुम निवेदिता
नमस्ते नमस्ते देवी, अंजलि मानव एकता.
अहो माता देवकन्ये, देहि अक्षय शांति
देहि शक्ति, देहि भक्ति, देहि सर्वे कांति.
यात्री सर्वे कर्म गेहे, याचिछे आशीष माँ
प्रणति चरण कमले तव, नमस्ते अंटार्कटिका.
इसी बीच एक दिन तय हुआ कि हम 5-6 लोग शेल्फ़ के किनारे जाएँगे और सम्भव हुआ तो जमे हुए समुद्र पर उतरकर बर्फ़ तथा समुद्री जल के कुछ नमूने वैज्ञानिक अध्ययन हेतु एकत्र करेंगे. भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण की तरफ से मैं और मेरे वरिष्ठ सहयोगी, राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्था की ओर से दलनेता और हमारे मौसमविद साथी के अलावा दो सदस्य और चुने गये इस छोटे से दल में. हमने एक “पिस्टन बुली” (PISTEN BULLY) गाड़ी ली, उसमें खाने का कुछ सामान, कुछ अतिरिक्त कपड़े, एक छोटा सा स्लेज, हाथ से चलाने वाला एक आइस ड्रिल मशीन (HAND AUGER DRILL MACHINE) , बेलचा और फावड़ा आदि लिया. पर्वतारोहण के लिये व्यवहृत रस्सी गाड़ी में हमेशा रहती ही थी. आसमान में बादल थे कई दिनों से. अनुमान लगाया गया कि अगले दो दिनों में बदली छायी रहेगी लेकिन तूफ़ान आने की सम्भावना नहीं है, और हम समुद्र किनारे को लक्ष्य रखकर चल पड़े.
स्टेशन से लगभग 15-16 कि.मी. दूर उत्तर-पूर्व दिशा में India Bay के पास, जिसका उल्लेख मैं पहले कर चुका हूँ, एक ऐसा स्थान हमारा लक्ष्य था जहाँ शेल्फ़ की ऊँचाई से जमे समुद्र पर उतर पाना सम्भव हो सकता था. सात महीने पहले जहाज़ वापस चले जाने के बाद आज हम पहली बार इस क्षेत्र में आ रहे थे. बिना किसी असुविधा अथवा बाधा के हम शीघ्र ही वहाँ पहुँच गये. शेल्फ़ का सख्त नीला बर्फ़ (Blue Ice) नर्म, सफेद बर्फ़ के मोटे पर्त से लगभग पूरी तरह ढका हुआ था. उसी पर हमारी ‘पिस्टन बुली’ अपने टैंक-नुमा ट्रैक बेल्ट का दाग छोड़ते हुए हमें ऐसे अंदाज़ में ले गयी मानो हमारा जीवन ही धन्य हो गया. तापमान माईनस 25 डिग्री सेल्सियस के आसपास मँडरा रहा था लेकिन हवा का प्रकोप नहीं था. शेल्फ़ के किनारे से जो दृश्य देखा वह हमें मोहित करने वाला था. उत्तर की ओर हमारे पैरों के नीचे समुद्र ठोस जमा हुआ था और उसमें बहुत से बड़े बड़े हिमखण्ड अर्थात आईसबर्ग (Iceberg) फँसे हुए थे. किसी शहर की विशाल अट्टालिकाओं की तरह वे सामने दिख रहे थे. यह अंदाज़ा लगाना मुश्किल था कि वे हमसे कितनी दूर थे. अंटार्कटिका में दूरियाँ बहुत ही भ्रामक होती हैं. केवल सफ़ेद तथा ग्रे रंग और क्षितिज से क्षितिज तक सपाट बर्फ़ की ज़मीन होने के कारण किसी भी landmark के अभाव में बहुत दूर की कोई चीज़ बहुत नज़दीक अथवा बहुत नज़दीक की चीज़ दूर होने का भ्रम होना आम बात है. मरीचिका या mirage effect के कारण छोटी सी चीज़ बहुत बड़ी भी दिखती है, ज़मीन की चीज़ आसमान में लटकी हुई भी नज़र आती है.
गाड़ी रुकते ही पीछे की केबिन से हम चार लोग अपना स्नो-गॉगल्स ठीक से आँख पर चढ़ाते हुए लपक कर नीचे उतरे. पराबैंगनी किरण (Ultraviolet या UV ray) का ज़बर्दस्त असर था. अंटार्कटिका में सफेद, स्वच्छ बर्फ़ से परावर्तित होकर सूर्य से प्राप्त ऊर्जा का लगभग 96% वातावरण में वापस चला जाता है. UV किरण इस परावर्तित ऊर्जा का मुख्य अंश है. यदि आँख को इससे बचाया न जाए तो इंसान शीघ्र अंधा हो जाता है. हमने पहले थर्मस से चाय लेकर पिया और फिर चल दिये ढूँढ़ने ऐसी जगह जहाँ से जमे हुए समुद्र पर उतरा जा सके. सफेद की इस चकाचौंध में आँखों को थोड़ा समय लगा सहज होने में. नज़दीक ही हमें नर्म बर्फ़ से बना हुआ एक प्राकृतिक ढलान (ramp) मिल गया. बर्फ़ रूई की तरह नर्म और बिल्कुल सूखी थी. हमारे पैर उसपर पड़ते ही धँसने लगे लेकिन स्लेज पर सब सामान लादकर उसे नीचे उतारना कोई मुश्किल काम नहीं था. हमने एक जगह फावड़े से थोड़ा सा गड्ढा बनाया और फिर ड्रिल की सहायता से बर्फ़ का छेदन शुरु किया. किसी को नहीं मालूम था हमारे पैर के नीचे की बर्फ़ कितनी मोटी है, इसलिये गाड़ी के साथ रस्सी
बाँधकर स्लेज को उसके साथ बाँध दिया गया था. यदि बर्फ़ पतली हो और अचानक हम समुद्र में घुस जाएँ तो !!!
सावधानी से ड्रिल करते हुए जब पता लगा कि उस स्थान पर समुद्र के पानी की सतह के ऊपर लगभग 3 मीटर बर्फ़ थी, हम निश्चिंत होकर काम करने लगे. बर्फ़ का घनत्व नापने के बाद अन्य आँकड़े एकत्रित किये गये. फिर उसी गड्ढे से समुद्र में सैम्पल कलेक्टर डालकर दलनेता ने नमूना लेना शुरु किया. मैं और मेरे मौसमविद साथी बात करते हुए तथा फोटो खींचते हुए, टहलते हुए समुद्र के ऊपर कुछ दूर तक निकल गये. समुद्र हमारे पैर के कितने नीचे था हमें पता नहीं था. हाँ, कहीं-कहीं हमें लगा कि पानी शायद बहुत नज़दीक है. एक जगह बर्फ़ के एक दरार से पानी छलक कर ऊपर आ रहा था. हम सावधान हो गए. हमें ध्यान आया कि हमारे पास न तो सुरक्षा का कोई साधन है और न ही वॉकी-टॉकी जिससे हम अपने साथियों को सूचना भेज सकते थे. तुरंत हम पीछे मुड़े तो किनारा बहुत दूर दिख रहा था और हमारे साथी व हमारी गाड़ी दृष्टि से ओझल हो गए थे. बहुत धीरे, एक-एक कदम हल्के से रखते हुए हम वापस चलने लगे. किनारे की ओर तो हम निश्चित रूप से जा रहे थे लेकिन दिशा के बारे में हमें संदेह था क्योंकि बहुत देर तक चलने के बाद भी हमें अपने साथी दिखाई नहीं दे रहे थे, गाड़ी भी नहीं. हमें लगा सम्भवत: हम उनसे दूर भटक गए हैं. कोई चारा नहीं था. हवा तेज़ हो रही थी, बर्फ़ के छोटे कण हवा में तैरने लगे थे. White out होने का ख़तरा था. अगर ऐसा हो जाता तो किनारा दिखना बंद हो जाता और दिशाज्ञान शून्य होकर हम हमेशा के लिये समुद्र में खो सकते थे. वापस मुड़ने से पहले जिस बड़े आईसबर्ग के आकर्षण में हम दोनों उसकी ओर खिंचे चले जा रहे थे वह अभी भी उतनी ही दूरी पर खड़ा लग रहा था जितना कि एक घंटे पहले था. लेकिन शेल्फ़ का किनारा दिखने के कारण हम बिना रुके उस ओर बढ़ते गए. हमें रास्ते में बहुत से ऊँचे-ऊँचे ‘सास्त्रुगी’ (sastrugi) मिले जो बर्फ़ की नुकीली लहरनुमा दीवारें होती हैं. इन्हीं सास्त्रुगी के कारण हम अपने साथियों को नहीं देख पा रहे थे. जैसे ही इन्हें पार करके हम आगे बढ़े सफ़ेद पर्दे के बीच कुछ नारंगी और काले धब्बे से दिखने लगे. निश्चित रूप से वे हमारे साथी ही थे जिनके जैकेट के प्रतिदीप्तिशील (fluorescent) रंग दूर से चमक रहे थे. हमने अपना हाथ उठाकर उनका ध्यान खींचने की कोशिश की लेकिन नाकाम रहे. अभी भी हम लगभग एक किलोमीटर दूर थे उनसे.
अंतत: जब हम किनारे पहुँचे तो पता चला कि वे बहुत देर से हमारे लिये परेशान थे क्योंकि समुद्री बर्फ़ से आवाज़ें आ रही थीं ठीक वैसे ही जैसे बर्फ़ में दरारें पड़ने पर आती हैं. हम किस दिशा में गए थे उन्हें पता नहीं था अत: उस अनिश्चितता में हमें ढूँढ़ने जाने से अच्छा था प्रतीक्षा करना. ख़ैर, दलनेता से मीठी सी डाँट सुनकर हम गाड़ी में बैठे और तेज़ी से स्टेशन की ओर चल दिए. सेना के जो हवलदार साहब गाड़ी चला रहे थे वे बार-बार खिड़की से झाँककर सामने देखते हुए ड्राईव कर रहे थे क्योंकि अंदर से उन्हें गाड़ी की ट्रैक का निशान स्पष्ट नहीं दिख रहा था. स्टेशन पहुँचते ही हवलदार साहब डॉक्टर के पास गए और कान के पीछे दर्द होने की शिकायत की. डॉक्टर ने देखा तो वहाँ एक बड़ा सा फोड़ा जैसा घाव था. यह फोड़ा ठण्डी हवा के आक्रमण से हुआ था क्योंकि गाड़ी की खिड़की से बाहर झाँकते समय उनका मुखौटा खिसक गया था. ठण्ड से सुन्न हो जाने के कारण उन्हें कुछ भी पता नहीं चला था. स्टेशन की गर्मी में पहुँचते ही फोड़े का दर्द महसूस होने लगा था. डॉक्टर ने उनके लिये एक महीने तक स्टेशन से बाहर जाने में रोक लगा दी थी. हम लोगों को नयी सीख मिली.
(मौलिक तथा अप्रकाशित सत्य घटना)
Comment
इस बार के आलेख में तीन विन्दु मुख्य रहे, आदरणीय.
एक, अंटार्कटिका की पत्रिका के प्रति समर्पण भाव से कार्य और अंटार्कटिका की महत्ता में अद्भुत गान !
दो, समुद्र पर चलना.. ओह आश्चर्य ! इस रोमांचकारी चहलकदमी को सोच कर ही शरीर में झुरझुरी होने लग रही है. ... :-))
तीन, असामान्य ताप --और दाब में भी-- शरीर पर पड़ने वाले कुप्रभाव का अस्ली अर्थ ! चालक के कान में फोड़े का हो जाना मौसम की निरंकुशता की बानग़ी ही है. यह धरती अपनेआप में वस्तुतः एक अद्भुत लोक है !
देखिये, इसकी मिसाल अपने वाले ब्रह्माण्ड में है भी या नहीं.
अंटार्कटिका गान के लिए आदरणीय शरदिन्दुजी हृदय से बधाई.
इस प्रशस्ति गान की पंक्तियों में आया नमस्ते माँ अभागिनी, शस्य श्यामल वंचिता ने तो आपकी संवेदनशीलता के प्रति फिर से नत कर दिया. अमूमन कोई रचनाकार ऐसे तथ्य को अपने प्रशस्ति गान में पंक्तिबद्ध करने की नहीं सोचेगा. लेकिन आपकी यह पंक्ति अंटार्कटिका से आत्मीयता हेतु परमभाव का उदाहरण साझा करती है.
ऐसा आत्मीय सम्बन्ध मूलतः अपनी माता के साथ ही होता है जिससे हम अत्यंत अनौपचारिक होते हैं.
सादर
आदरणीय शरदिंदु जी, अन्टार्कटिका पर एक सुन्दर रचना के लिये बधाई.
जमे समुद्र पर चलने का आनन्द आ गया. नीली बर्फ़ को देखते हुये आगे बढ़ने पर खो जाने का अनुभव मजेदार था. सास्त्रुगी की भूल भूलैया और समुद्र की विशाल जल राशि के उपर खडे़ होने का अनुभव भी मजेदार था.
सादर.
आदरणीय शरदिंदु जी सादर, बहुत अद्भुत हकीकत, पढ़कर ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं.बहुत रोमांचक वृत्तांत. प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत आभार.
आपकी एक के बाद एक सत्य घटना पढ़ कर आनन्द आ रहा है .... मैं समझ सकता हूँ आप सभी में कितनी excitement होगी एक के बाद एक adventure में ! ....इतनी सारी बच्चों-जैसी-खुशी का अनुमान मैं लगा सकता हूँ। धन्यवाद यह खुशी साझा करने के लिए।
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