आँखों देखी 11 - रोमांचक 58 घंटे
मैंने आँखों देखी 9 में ऑक्टोबर क्रांति से जुड़े कार्यक्रम में भाग लेने के लिए रूसी निमंत्रण की ओर इशारा किया था. फिर, हम लोगों के समुद्र के ऊपर पैदल चलने की बात याद आ गयी. सो, पिछली कड़ी (आँखों देखी 10) में रूसी निमंत्रण की बात अनकही ही रह गयी थी. आज मैं आपको वही किस्सा सुनाने जा रहा हूँ.
हमारे स्टेशन में उनके एक सदस्य की शल्य चिकित्सा के बाद रूसी कुछ विशेष रूप से आभार व्यक्त करने की सोच्र रहे थे. अत: रूस में समाजवाद लाने का श्रेय जिसे दिया जाता है, उस ऑक्टोबर क्रांति दिवस के उपलक्ष्य में निमंत्रण देने के लिए बहुत ही ख़राब मौसम के बावजूद उनके दलनेता और 5-6 वरिष्ठ सदस्य एक दिन अपने विशाल armored carrier जैसी गाड़ी लेकर दक्षिण गंगोत्री पहुँच गए. लगभग zero visibility में वे कैसे 90 कि.मी. की दूरी तय करके आये यह कहना मुश्किल है लेकिन उनके लम्बे अनुभव के कारण ही ऐसा सम्भव हो सका था, इस बारे में कोई संदेह नहीं. उन्होंने हमारे साथ औपचारिक वार्ता की, हमें निमंत्रण दिया और यह भी प्रस्ताव रखा कि हममें से 6-7 लोग उनकी गाड़ी में ही जा सकते हैं. लेकिन भारतीय शान की बात थी अत: हमारे दलनेता ने यह प्रस्ताव सविनय अस्वीकार किया और मौसम ठीक होने की प्रतीक्षा करने लगे. रूसी भी दो दिन ठहर गए. फिर उन्होंने वापस जाने का निर्णय लिया .यह तय हुआ कि उनकी गाड़ी आगे-आगे जाएगी और उस गाड़ी का ट्रैक देखकर हमारी गाड़ी उनके पीछे नोवो स्टेशन तक पहुँच ही जाएगी. भारतीयों में जब जोश चढ़ता है तो वे कुछ भी करने को तैयार रहते हैं. बेहद खराब मौसम में ही एक ‘पिस्टन बुली’ को किसी तरह तैयार किया गया. पीछे के केबिन में खाने का सामान, स्लीपिंग बैग, जैकेट, एमर्जेंसी स्टोव, दवाएँ आदि रखे गए जिनसे केबिन का आधे से अधिक स्थान भर गया. बाकी जगह में चार सदस्य किसी तरह सिमटकर बैठ गए. सामने चालक और उसके बगल में एक और सदस्य. स्टेशन में जो रह गए उन पर दायित्व था दलनेता और अन्य सदस्यों की अनुपस्थिति में सब कुछ संभालना.
रूसियों ने गाड़ी स्टार्ट की और चल दिये. कुछ दूर तक हमारे साथियों की पिस्टन बुली उनके पीछे जाने में सक्षम हुई लेकिन फिर – या तो रूसियों की गाड़ी की गति तेज़ हो गयी थी, या फिर बर्फ़ के तूफ़ान ने और अधिक ज़ोर पकड़ लिया था. बहरहाल, रूसियों की गाड़ी अब दिखाई नहीं दे रही थी. हम लोग स्टेशन से अपने साथियों के साथ और रूसियों के साथ रेडिओ पर लगातार सम्पर्क बनाए हुए थे. रूसी गाड़ी के ओझल होते ही ‘घुप्प सफेदी’ (total white-out) में हमारे दल के चालक का दिशा ज्ञान शून्य हो गया था. अत: शीघ्र ही निर्णय लिया गया कि आगे न बढ़कर कुछ देर तक रुक लिया जाए और मौसम के ठीक होने की प्रतीक्षा की जाए. लेकिन मौसम को कुछ और ही मंज़ूर था....हवा की गति तेज़ हो गयी और यंत्रों के माध्यम से प्राप्त उपग्रही चित्रों (satellite picture) ने हमें बताया कि अगले तीन चार दिन तक इस भयावह तूफान से कोई राहत नहीं मिलने वाली थी. हमारे डॉक्टर रेडिओ द्वारा पिस्टन बुली में फँसे हमारे साथियों को लगातार सुझाव दे रहे थे कि वे कैसे ख़ुद को गर्म रख सकते हैं. हमारी आँखें उस यंत्र पर जमी हुई थीं जिससे उपग्रही चित्र लिए जा रहे थे. सारी आशाओं और प्रार्थना के बावजूद प्रकृति का अट्टहास तीव्र से तीव्रतर होता जा रहा था. हमें ख़बर मिली कि गाड़ी के अंदर बहुत ही सीमित जगह में सबके हाथ और विशेषकर पैर की माँसपेशियाँ खिंचने लगी थीं. ठंड और ऊपर से अपर्याप्त भोजन का असर धीरे-धीरे हावी होने लगा था. बिस्कुट, सूखे मेवे, चॉकोलेट आदि का पर्याप्त भण्डार उनके पास था जिससे 5-6 दिन बिना नियमित भोजन के चल सकता था लेकिन स्थान की कमी, गाड़ी के अंदर सिकुड़कर बैठे रहने की मजबूरी और लगातार लम्बे समय तक बहुत कम तापमान में रहने के कारण एक ऐसा मानसिक दबाव था सब पर कि हम अपने स्टेशन के आरामदेह परिवेश में भी चरम संभाव्य परिणति की कल्पना से ही बेहद चिंतित थे. डॉक्टर को डर लग रहा था कि किसीको हाईपोथर्मिया अर्थात अपताप न हो जाए. ऐसे में शरीर का तापमान सहनीय स्तर से नीचे चला जाता है और शरीर की स्वाभाविक क्रियाएँ धीरे-धीरे बंद होने लगती हैं. यह बहुत चिंताजनक स्थिति होती है क्योंकि ऐसे रोगी की तुरंत सुश्रूषा न हो तो जीवन संशय हो सकता है.
रूसी गाड़ी के ओझल होने के बाद तूफ़ान में पिस्टन बुली रुक जाने से लेकर 6-7 घंटे तक न ही उन 6 साथियों में और न ही स्टेशन में कोई दुश्चिंता उत्पन्न हुई थी. जब तीस घंटे से अधिक हो गया तो हमने पाया कि गाड़ी में फँसे साथियों से सम्पर्क कमज़ोर पड़ता जा रहा है. वे थके थे और स्वाभाविक रूप से बेचैन हो उठे थे. हम सभी अपनी जगह पर अपने-अपने ढंग से सोच रहे थे कि क्या उपाय किया जाए. एक नयी समस्या सर उठा रही थी. पिस्टन बुली में वे लोग जो बैटरी पैक साथ ले गए थे उसकी क्षमता ठण्ड के कारण तेज़ी से क्षीण होती जा रही थी. इसका अर्थ स्पष्ट था. कुछ घंटे बाद वे संचार के उपलब्ध साधन चार्ज करने में असमर्थ हो जाएँगे. गाड़ी का इंधन बचा कर रखने के लिए वे गाड़ी भी लगातार स्टार्ट करके नहीं रख सकते थे. अत: हम तटस्थ थे. यदि संचार सम्पर्क टूट गया तो उनका मनोबल टूट जाएगा और तब विषम परिस्थिति से लड़ने की क्षमता भी खत्म होती जाएगी.
अड़तालीस घंटे बीत चुके थे, छह लोग छोटे से पिस्टन बुली में क़ैद थे प्रकृति के हाथों. जो थोड़ा बहुत सम्पर्क हो रहा था हमारे बीच उससे हमें आभास हुआ कि हमारे साथी अब अधीर हो उठे हैं और स्टेशन वापस आने के लिए कोई सख़्त उपाए ढूँढ़ना चाहते हैं. अधीरता हमारे स्टेशन में भी दिखाई दे रही थी. कुछ लोगों का मत था कि हम एक दूसरी गाड़ी लेकर उनकी सहायता के लिए पहुँचे. लेकिन इस प्रस्ताव को अमल में लाना लगभग असम्भव दिखता था. हमें यदि उन तक पहुँचने में सफलता मिल सकती तो वे भी वापस आ सकते हैं – यही सोचकर प्रतीक्षा करना ही तय हुआ. रूसियों से भी मदद लेने की सोची गयी लेकिन भारतीय स्वाभिमान आड़े आया.
शायद 52 घंटे बीत चुके थे जब अचानक ही पिस्टन बुली से घोषणा की गयी कि वे स्टेशन के लिए चल पड़े हैं. हम सब सन्न रह गए. दृष्टि अभी भी मात्र दो-तीन मीटर तक ही जा रही थी. वे लोग हमसे 7-8 कि.मी. दूर थे – कैसे उस व्हाईट आऊट में वापस आ पाएँगे!
इस घोषणा को सुनते ही हमने स्टेशन के बाहर की सारी लाईट जला दी जिससे उड़ती बर्फ़ के पर्दे के बीच से उन्हें प्रकाश दिख जाए और दिशा मिल जाए. लगभग और एक घंटे बाद हमलोगों ने रुक-रुक कर फ़्लेयर गन दागने शुरु किए. प्रकाश का एक गोला सा बंदूक के सहारे आसमान में ऊपर तक चढ़ता और मानो पिस्टन बुली को ढूँढ़ता हुआ निराश होकर फिर से धरती पर वापस आ जाता. कुछ समय बाद ही उन्हें एक फ़्लेयर दिख गया. हम सब खुश थे. अब उनकी गति तेज़ हो गयी थी. हमने और फ़्लेयर दागे. वे दौड़ते चले आ रहे थे. हम लोग भी स्टेशन की छत के ऊपर जा कर बैठ गए और तमाम लाईट के रहते हुए भी बड़े टॉर्च जलाकर हिलाने लगे ठीक जैसे एक ट्रेन का गार्ड अपनी गाड़ी के चालक को दिखाता है. हमें पिस्टन बुली का प्रकाश नहीं दिख रहा था. जब काफ़ी देर हो गयी तो हम सभी को संदेह हुआ कि गाड़ी ठीक दिशा में आ भी रही है या नहीं! हमने उनसे कहा कि रुकें और अगला फ़्लेयर देखने की कोशिश करें. हमने एक के बाद एक तीन फ़्लेयर दागे और सुनकर अवाक रह गए कि वे उन्हें अपनी गाड़ी के पीछे की ओर कुछ दूरी पर देख रहे थे. वास्तव में वे स्टेशन से थोड़ी दूर से गुजरे थे और स्टेशन की लाईट न दिखाई देने के कारण वे उस स्थान को पार करके समुद्र की ओर चले गए थे. ख़ैर, अब कोई भूल नहीं हुई और शीघ्र ही उन्हें स्टेशन की लाईट दिख गयी. ठीक 58 घंटे बाद हमारे साथी हमारे बीच वापस आ गये थे – बुरी तरह से थके हुए लेकिन आत्मविश्वास से पूर्ण.
मैंने उनसे कौतूहलवश पूछा था कि जब उन्होंने वापसी यात्रा शुरु की तो कैसे, किस दिशा में चलना तय किया! उनका उत्तर सुनकर हम सभी हैरान रह गए. मेरे वरिष्ठ साथी जो भूविज्ञानी हैं और उसी पिस्टन बुली में थे, ने ही यह प्रस्ताव रखा था. उन्होंने कहा था कि रूसी गाड़ी भारी होने के कारण उसकी ट्रैक का निशान शेल्फ़ की बर्फ़ीली सतह पर अवश्य पड़ा होगा. गाड़ी को पीछे घुमाकर यदि उस निशान को देखते हुए चला जाए तो दक्षिण गंगोत्री पहुँचा जा सकता है. लेकिन ट्रैक को देखने के लिए बर्फ़ पर पेट के बल लेटकर रेंगते हुए चलना होगा बारी-बारी सभी को. उनको देखते हुए चालक गाड़ी को धीरे-धीरे लेकर चल सकता है. मिसाल रखने के लिए वे स्वयं सबसे पहले उस तूफ़ान में बाहर निकले. फिर जैसा सोचा था वैसा ही होने लगा. जब उन्हें फ़्लेयर दिख गया था तो रास्ता ढूँढ़कर चलने की आवश्यकता नहीं थी. वे गाड़ी के अंदर बैठ गए थे. इसी चूक के कारण वे स्टेशन की सही दिशा को खो दिए थे और समुद्र की ओर निकल गए थे.
सब भला जो अंत भला. गर्म खाना खाकर और गर्म पानी से नहाकर वे विश्राम के लिए गए. हम सब भी निश्चिंत होकर बिस्तर पर ढेर हो गए – जगे रहे केवल स्टेशन ड्यूटी वाले दो साथी और यंत्रों में लगी हुई जलती-बुझती बत्तियाँ.
(मौलिक तथा अप्रकाशित सत्य घटना)
Comment
आपके रोचक संस्मरण को अंत तक पढ़ कर हर बार उत्सुक मन पूछता है, "अब आगे क्या होगा?"
हार्दिक बधाई।
जब पाठक/पाठिका के कलम से निकले "हे ईश्वर" अथवा "हे भगवान" तो संस्मरण लिखने की उपयोगिता स्पष्ट हो जाती है. मैं प्रतीक्षारत था कि कुछ प्रतिक्रियाएँ आ जाएँ तो उत्तर दूँ. आज हम सभी माँ शारदे का आशीष लिये कुछ न कुछ अवश्य लिखेंगे.मैं आप सभी का हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ कि आपने यह संस्मरण पढ़ कर अपने भाव व्यक्त किए...इसीसे मुझे शक्ति और उत्साह मिलता है कि जो मैंने देखा उसे सबके साथ साझा करूँ.
//ऐसे किसी मिशन की सफलता का मुख्य कारण जुनून हुआ करता है.//
जी नि:संदेह. जुनून न हो तो कुछ विशेष प्रकार के काम करना सम्भव नहीं होता. सादर.
हे ईश्वर.. !!
एक बात अवश्य है, ऐसे किसी मिशन की सफलता का मुख्य कारण जुनून हुआ करता है. उस जुनून को हम सब के लिए फिर से जीने के लिए आपके प्रति सादर धन्यवाद, आदरणीय शरदिन्दुजी..
इस बार की कथा पूर्व की भांति रोचक तो है ही,शिक्षाप्रद भी है. कि, कैसे घोर विपरीत परिस्थितियों में आदमी की समझ संयत रहनी चाहिये. अब इससे प्रतिकूल परिस्थिति और क्या होगी !?
सादर
आदरणीय शरदिंदु जी सादर, "आँखों देखी" का हर भाग रोमांचित करता है. प्रस्तुति के लिए आभार.सादर.
आ0 मुखर्जी जी आपके संस्मरण बहुत ही रोमांचक लगते है आपके इन संस्मरणों को निर्झर टाइम्स पर भी पढ़ती रहती हूँ , सच मे बेहद रोमांचक । हम भाग्यशाली है जो आपका साथ और आपके संस्मरण दोनों हमे मिल रहे है । सादर
बहुत रोमांचकारी संस्मरण ....अन्दर तक सिहर उठी ...बाकी संस्मरण भी पढूंगी ...
रोंगटे खड़े हो गये पढ़ कर .... हे भगवान !!
आदरणीय शरदिन्दु जी,
एक बार फ़िर तैयार हूँ...आइये चलें..
सड़क पर अगर गाडी़ किसी और से भिड़ जाये तो तुरत ही कह पड़ते हैं दिखता नहीं है क्या? लेकिन ऎसी जगह जहाँ बाहर शरीर को चीरने वाली हवा चल रही हो और १ मी. से आगे कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा हो वहाँ की हालत क्या हो सकती है ये सोचा ही जा सकता है.
पिछले संस्मरण में आपने लिखा था कि बाहर देख के गाडी़ चलाने पर एक ड्राइवर को कान मे घाव हो गया था. इस बार तो रास्ता देखने के लिये जमीन पर लेटना पडा़. रास्ता खोजने का ये तरीका केवल जुगाड़ ही कहा जा सकता है.
रुस वाले जब आगे चले गये तो क्या भारतीयों को लाने के लिये वापस नहीं आये? जब कोई साथ साथ चल रहा हो तो छूटने पर रुक कर या तो इन्तजार किया जाता है या वापस आ कर हाल चाल लिया जाता है. शायद इसमें भी रुसवालों को मास्को से आदेश लेना आवश्यक होगा !! पता नहीं उनकी मजबूरी क्या थी ? लेकिन ५६ घण्टों तक एक जगह बैठना अपने आप में एक सजा है, और उपर से जब जान के लाले पडॆ़ हो तो बात ही क्या?
किसी काम को करने में जब शिथिलता आ जाती है तो काम गड़बडा़ जाता है...जब तक रास्ते पर लोट लोट कर जा रहे थे तो सही थे जैसे ही फ़्लेयर देखा आराम में आ गये और रास्ता भटक गये..इतनी तेज लाइट और टार्च के बावजूद बेस स्टेशन गंगोत्री का ना दिखना तूफ़ान की भयावहता को बताने के लिये काफ़ी है...
एक बार फ़िर मजेदार यात्रा और अनुभव.
सादर.
हे ईश्वर ....
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