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खुशबू के पल भीने से/नवगीत/कल्पना रामानी

रंग चले निज गेह, सिखाकर

मत घबराना जीने से।

जंग छेड़नी है देहों को,

सूरज, धूप, पसीने से।

 

शीत विदा हो गई पलटकर।

लू लपटें हँस रहीं झपटकर।

वनचर कैद हुए खोहों में,

पाखी बैठे नीड़ सिमटकर।

 

सुबह शाम जन लिपट रहे हैं,

तरण ताल के सीने से।

 

तले भुने पकवान दंग हैं।

शायद इनसे लोग तंग हैं।

देख रहे हैं टुकुर-टुकुर वे,

फल, सलाद, रस के प्रसंग हैं।

 

मात मिली भारी वस्त्रों को,

गात सज रहे झीने से।

 

गोद प्रकृति की हर मन भाई।

दुपहर एसी कूलर लाई। 

बतियाती है रात देर तक,

सुबह गीत गाती पुरवाई।

 

बाँट रहे गुल बाग-बाग में,

खुशबू के पल भीने से।

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by कल्पना रामानी on April 3, 2014 at 9:58pm

आदरणीय लड़ीवाला जी, आपको गीत पसंद आया, बहुत अच्छा लगा। हर्षित करती हुई टिप्पणी के लिए बहुत बहुत धन्यवाद/सादर

Comment by कल्पना रामानी on April 3, 2014 at 9:57pm

आदरणीय आशुतोष मिश्रा जी, प्रोत्साहित करती हुई टिप्पणी के लिए हार्दिक  धन्यवाद  

Comment by Shyam Narain Verma on April 3, 2014 at 1:23pm
बहुत सुंदर नवगीत...बहुत-बहुत बधाई..............

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on April 3, 2014 at 10:31am

बहुत खूबसूरत रवां नवगीत है बहुत बहुत बधाई आपको

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on April 2, 2014 at 12:22pm

भीनी भीं खुशबू देता आपका यह नवगीत बेहद पसंद आया | हार्दिक बधाई आद. कल्पना रामानी जी 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on April 1, 2014 at 5:53pm

आदरणीया कल्पना जी ..मनभावन नव गीत ..मौसम परिवर्तन का क्या लाजबाब चित्रण किया है आपने ..गेयता भी मन को मुग्ध का देने वाली है ..आपकी इस शानदार प्रस्तुति को सादर नमन के साथ 

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