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समय हमें क्या दिखा रहा है/गज़ल/कल्पना रामानी

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समय हमें क्या दिखा रहा है।

कहाँ ज़माना ये जा रहा है।

 

कोई बनाता है घर तो कोई,

बने हुए को ढहा रहा है।

 

बुझाए लाखों के दीप जिसने,

वो रोशनी में नहा रहा है।

 

गुलों को माली ही बेदखल कर,

चमन में काँटे उगा रहा है।

 

कुचलता आया जहाँ उसी को,

जो फूल खुशबू लुटा रहा है।

 

जो बीज बोकर उगाता रोटी,

वो भूख से बिलबिला रहा है।

 

हो बाढ़ या सूखा दीन का तो,

सदा ही खाली घड़ा रहा है।

 

खफा हैं क्यों काफिये बहर से,

गज़ल को ये गम सता रहा है।

 

ये “कल्पना” रब का न्याय कैसा,

दुखों का ही दिल दुखा रहा है। 

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment

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Comment by coontee mukerji on April 6, 2014 at 12:48pm

कल्पना जी आपकी गज़ल की एक एक पंक्ति आज के समाज का सही चित्र खींचा है.आपके अनुभव को साधुवाद.

Comment by बृजेश नीरज on April 6, 2014 at 7:56am

सच्चाई से भरे अशआर! बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल! आपको बहुत-बहुत बधाई!

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on April 6, 2014 at 12:29am

आपका ह्रदय से आभारी हूँ आदरणीया कल्पना जी,  मेरे कहे को आपने इतना मान दिया यह आपका बड़प्पन है .

सादर!

Comment by कल्पना रामानी on April 5, 2014 at 10:33pm

आदरणीया प्राची जी, आपको गजल पसंद आई, मन को सुकून मिला। मन से धन्यवाद आपका

Comment by कल्पना रामानी on April 5, 2014 at 10:31pm

प्रिय गीतिका, तुम्हारी रचना पर उपस्थिति ही सुखकर प्रतीत होती है, बहुत बहुत धन्यवाद /सप्रेम

Comment by कल्पना रामानी on April 5, 2014 at 10:30pm

आदरणीय अखिलेश जी, प्रोत्साहित करने के लिए सादर धन्यवाद

Comment by कल्पना रामानी on April 5, 2014 at 10:28pm

आदरणीय जितेंद्र जी, आपने समय देकर बारीकी से गजल को पढ़ा इससे बहुत खुशी हुई। आपके बताए शब्द पर अब मेरी भी सहमति बन रही है।  लिखते समय यह शब्द भी सोचा था, पर सटीक क्या रहेगा यह तय नहीं कर पाई। आपने सुझाव देकर मेरी उलझन दूर कर दी। आपका मन से आभार।

Comment by कल्पना रामानी on April 5, 2014 at 10:24pm

आदरणीय बैद्यनाथ जी, प्रोत्साहित करती हुई टिप्पणी के लिए हार्दिक धन्यवाद


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on April 5, 2014 at 10:09pm

सभी अशआर बहुत सादगी और सच्चाई से कहे गए हैं ..बहुत पसंद आये 

बहुत बहुत बधाई आदरणीया कल्पना जी 

Comment by वेदिका on April 5, 2014 at 4:53pm
कोई बनाता है घर तो कोई,
बने हुए को ढहा रहा है।
बहुत सादगी से किन्तु उतनी ही असरदार कहन हुयी है।
कुचलता आया जहाँ उसी को,
जो फूल खुशबू लुटा रहा है। ........ बहुत खूब
ढेर सारी शुभकामनायें आ0 कल्पना दी!
सादर गीतिका वेदिका

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