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खुद रूठूँ और खुद मन जाऊं ……

खुद रूठूँ और खुद मन जाऊं ……

खुद रूठूँ और खुद मन जाऊं
प्रीतम तुझ को कैसे बुलाऊँ

पल-पल ..तेरी राह निहारूं
एकांत पलों में तुझे पुकारूं
जीने की कोई आस बता दे
किस मूरत से .नेह लगाऊं

खुद रूठूँ और खुद मन जाऊं
प्रीतम तुझ को .कैसे बुलाऊँ

भोर व्यर्थ मेरी .साँझ व्यर्थ है
तुझ बिन मेरी प्यास व्यर्थ है
अंबर के घन .कुछ तो कह तू
कैसे नयन का ...नीर छुपाऊँ

खुद रूठूँ और खुद मन जाऊं
प्रीतम तुझ को .कैसे बुलाऊँ

तड़पत-तड़पत .रैन बिताऊं
रुष्ट पलों से तन्हा बतियाऊं
नन्हे जुगनू .मुझको बता दे
स्मृति से उन्हें कैसे भुलाऊँ

खुद रूठूँ और खुद मन जाऊं
प्रीतम तुझ को .कैसे बुलाऊँ

पुष्प बिना तो शूल व्यर्थ है
जीने का हर उसूल व्यर्थ है
विरह पलों को ...देते सांसें
मधु स्वरों को कैसे भुलाऊँ

खुद रूठूँ और खुद मन जाऊं
प्रीतम तुझ को कैसे बुलाऊँ


सुशील सरना

मौलिक एवं अप्रकाशित

Views: 654

Comment

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Comment by Sushil Sarna on June 4, 2014 at 6:10pm

 आदरणीय अन्नपूर्णा बाजपाई जी   रचना पर आपकी  आत्मीय  प्रशंसा का हार्दिक आभार

Comment by Sushil Sarna on June 4, 2014 at 6:09pm

 आदरणीय गिरिराज भंडारी  जी   रचना पर आपकी  आत्मीय  प्रशंसा का हार्दिक आभार

Comment by Sushil Sarna on June 4, 2014 at 6:07pm

 आदरणीया मीना पाठक जी   रचना पर आपकी  आत्मीय  प्रशंसा का हार्दिक आभार

Comment by annapurna bajpai on June 4, 2014 at 7:51am

वाह !!! क्या ही सुंदर रचना हुई है , बधाई आपको आ0 सुशील सरन जी । 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 3, 2014 at 10:13pm

आदरणीय सुशील सरन भाई , लाज`वाब विरह गीत की रचना की है , आपको हार्दिक बधाइयाँ ॥

Comment by Meena Pathak on June 3, 2014 at 10:09pm

पुष्प बिना तो शूल व्यर्थ है 
जीने का हर उसूल व्यर्थ है 
विरह पलों को ...देते सांसें 
मधु स्वरों को कैसे भुलाऊँ

खुद रूठूँ और खुद मन जाऊं 
प्रीतम तुझ को कैसे बुलाऊँ.......................... सुन्दर अभिव्यक्ति ,, बधाई | सादर 

Comment by Sushil Sarna on June 2, 2014 at 10:21am

आदरणीय जितेन्द्र जी   रचना पर आपकी मधुर  अभिव्यक्ति  का हार्दिक आभार। 

Comment by Sushil Sarna on June 2, 2014 at 10:19am

आदरणीया कुंती मुख़र्जी  रचना पर आपकी मुक्त स्नेहिल अभिव्यक्ति  का हार्दिक आभार। 

Comment by Sushil Sarna on June 2, 2014 at 10:18am

आदरणीया लक्ष्मण प्रसाद लडीवाला जी  रचना पर आपकी मुक्त आत्मीय  सराहना का हार्दिक आभार। 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on June 1, 2014 at 11:50pm

विरह की वेदना को बहुत सुन्दरता से संजोया है आपने आदरणीय शुशील जी, हार्दिक बधाई स्वीकारें

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