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2122 1122 22

बिजलियाँ हैं न हवा सावन में

गुज़री बेआब घटा सावन में

 

गर्म रातें ये सहर भी बेचैन

यूँ बुरा हाल हुआ सावन में

 

गुल खिले हैं न शिगूफ़े हँसते

है न रंगों का पता सावन में

 

खेत तालाब शजर भी सूखे

आसमाँ सूख गया सावन में

 

मुन्तज़िर सर्द फुहारों के अब

थक गई है ये फ़िज़ा सावन में

 

याद आती है हवा की ठण्डक

सब्ज़रंगी वो रिदा सावन में

 

मुन्तज़िर= इन्तज़ार में

शिगूफ़ा = कली

सब्ज़रंगी = हरे रंग की

रिदा = चादर

 

-(मौलिक, अप्रकाशित)

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Comment by शिज्जु "शकूर" on July 2, 2014 at 3:41pm

आदरणीय जितेन्द्र जी आपका हार्दिक आभार


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Comment by शिज्जु "शकूर" on July 2, 2014 at 3:41pm

आदरणीय लक्ष्मण सर आपका बहुत बहुत शुक्रिया

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 2, 2014 at 2:58pm

शिज्जू भाई

बहुत सुन्दर  गजल --

गुल खिले हैं न शिगूफ़े हँसते

है न रंगों का पता सावन में

 

खेत तालाब शजर भी सूखे

आसमाँ सूख गया सावन में

 

मुन्तज़िर सर्द फुहारों के अब

थक गई है ये फ़िज़ा सावन

Comment by Sushil Sarna on July 2, 2014 at 11:06am

खेत तालाब शजर भी सूखे
आसमाँ सूख गया सावन में .... वाआआआअह और बस वाह ही कहूँगा आदरणीय शिज्जु शकूर जी … हकीकत की फुहारों से सावन को बाँध दिया आपने। हार्दिक बधाई इस सुंदर ग़ज़ल के लिए।

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on July 2, 2014 at 10:59am

मुन्तज़िर सर्द फुहारों के अब

थक गई है ये फ़िज़ा सावन में...........बहुत ही सुंदर, दिली बधाई लीजिये आदरणीय शिज्जू जी

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 2, 2014 at 10:53am

वाह.. क्या कहने शिज्जु भाई ...सूखे होते सावन में आखिर रास भर ही दिया , हार्दिक बधाई l

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