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गंगा के नाले (लघु कथा) // --शुभ्रांशु पाण्डॆय

"अरे वाह आज तो मजा आ गया", रमेश घर में घुसते ही चहकते हुये बोला, ".. दुकानदार ने सामान का बिल बनाते समय साढ़े पाँच सौ रुपये कम जोड़े !"

“पापा, फ़िर तो आपको वो लौटा देना था न !”, बेटी नेहा ने अपनी आँखो को और बडा़ करते हुये कहा.

“पागल हो क्या ?”, मानों उसकी नादानी पर हँसते हुये रमेश ने कहा, “.... आज हम पार्टी करेंगे…”

 

नेहा के मन में टीचर की बतायी बातें कौंध गयीं, “गंगा में तमाम नदियाँ ही नहीं मिलतीं, शहरों के गंदे नाले भी गिरते हैं.”

उसे लगा, वो गंगा में गिरने वाले एक बड़े-से फ़ेनिल नाले के मुहाने पर खडी़ है.

 

(मौलिक और अप्रकशित)

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 29, 2014 at 11:36am

प्रिय

आपकी कहन ने घटना को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया  i  लघु कथा  में कहन का ही महत्त्व होता है i   

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on July 29, 2014 at 10:39am

कभी-कभी घर में बड़ों और छोटों में यही फर्क देखने को मिल जाता है, एक आम घटना  को बहुत ही बढ़िया बिंदु बनाकर साझा की गई लघुकथा पर, आपको हार्दिक बधाई आदरणीय शुभ्रांशु जी

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