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ग़ज़ल- कोई सूरत तो हो कि तुझपे ऐ’तबार आये

2122- 1212- 1212- 22 /112

कोई सूरत तो हो कि तुझपे ऐ’तबार आये

क्या पता दिलफ़रेब बन के ग़मग़ुसार आये

 

मैं तुझे भूलने की कोशिशों में हूँ बेचैन

पर मुझे तेरा ही खयाल बार-बार आये

 

ज़ीस्त गुज़री ख़मोशियों के दरमियान मगर

ये हुआ वक़्ते मर्ग लोग बेशुमार आये

 

दिल नज़ारा ए रंगो गुल को कब से तरसे है

ऐ खुशी काश तू मिसाले नौबहार आये

 

कौन सा दह्र है ये कौन सी जगह है जहाँ

दूर तक बस नज़र गुबार ही गुबार आये

 

(दिलफ़रेब- धोखा देने वाला, ग़मग़ुसार- हमदर्द, वक़्ते मर्ग- मौत के समय

मिसाले नौबहार- बहार की तरह, दह्र- काल)

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 14, 2015 at 11:55am

कोई सूरत तो हो कि तुझपे ऐ’तबार आये

क्या पता दिलफ़रेब बन के ग़मग़ुसार आये

आदरणीय शिज्जु भाई जी बेहतरीन ग़ज़ल हुई है । हार्दिक बधाइयाँ. ..  

Comment by Shyam Narain Verma on January 14, 2015 at 10:53am

बढ़िया ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाइयाँ. ..  


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 14, 2015 at 10:40am
आदरणीय शिज्जु भाई जी बेहतरीन ग़ज़ल हुई है। शेर दर शेर दिल से दाद कुबूल कीजिये। आखिरी शेर पर विशेष बधाई।

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