ऋतु बसंत का आगमन,शीतल बहे सुगंध,
खलिहानों से आ रही, पीली पीली गंध |
जाडा जाते कह रहा, आते देख बसंत,
मधुर तान यूँ दे रही, बनकर कोयल संत |
वन उपवन सुरभित हुए, वृक्ष धरे श्रृंगार
माँ वसुधा का मनिएँ, बहुत बड़ा आभार |
कलरव करते मौर अब, देखें उठकर भोर,
अद्भुत कुदरत की छटा, करती ह्रदय विभोर |
फूलों पर मंडरा रहे, भँवरे गुन गुन गान
मतवाला मौसम सुने, कुहू कुहू की तान |
पुष्प जड़ी चुनरियाँ सी, वसुधा ने ली ओढ़
नयें वस्त्र में डालियाँ, दिख जाती हर मोड़ |
गुनगुन करते गा रहे,भँवरों का अब दाँव,
पीत रंग में सज रहे, साजन से हर गाँव |
कलियों की मुस्कान से, खिला प्यार का रंग,
मन मयूर अब नाचता, भर कर खूब उमंग |
काम काज सब छोड़कर, लौटा उलटे पाँव
बासंती मौसम हुआ, देख हमारे गाँव |
गोद भराई हो रही, कर न सके सब चूक,
महक उठें उपवन सभी, कुहू कुहू की कूक |
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय लक्ष्मण भाई , सुन्दर दोहावली की रचना की है आपने ! हार्दिक बधाइयाँ ।
जाडा जाते कह रहा, आते देख बसंत,
मधुर तान यूँ दे रही, बनकर कोयल संत |
वन उपवन सुरभित हुए, वृक्ष धरे श्रृंगार
माँ वसुधा का मनिएँ, बहुत बड़ा आभार --- लाजवाब !!
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