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ग़ज़ल - सब रस्ते इन शहरों के बातूनी हैं ( गिरिराज भंडारी )

22   22  22  22   22  2

ये कैसी महफिल में मुझको ले लाया

हर कोई लगता है गुमसुम, थर्राया

 

सब रस्ते इन शहरों के बातूनी हैं

गाँवों की गलियों को सब ने फुसलाया

 

साहिल साहिल बात चली है लहरों में

तूफ़ाँ ने जब तोड़ी कश्ती, इतराया                                                                                                                                                               

क्या जज़्बा हाथों से बहते रहता है ?

धोते ही हाथों को पानी गँदलाया

 

दोनों कूदे संग प्रेम की खाई में

प्रश्न कहाँ तब, किसने किसको बहकाया

 

बाग़ों, फूलों, पगडंडी की बातें कर

धुयें उगलती चिमनी से मन उकताया  

 

झूठ बहुत वाचाल मिला जो झूठों में    

सच के आगे वही झूठ था हकलाया

 

धीरे धीरे यादें सब मिट जायेंगी

जैसे वक़्त हुआ तो माजी धुँधलाया 

*********************************

मौलिक एवँ अप्रकाशित

 

 

 

 

 

 

 

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 25, 2015 at 12:09am
आदरणीय गिरिराज सर बहुत सुन्दर ग़ज़ल हुई है। मतलाउउम्दा हुआ है। क्या तेवर है ग़ज़ल के । पढ़कर आनंद आ गया। पूरी ग़ज़ल एक रौ में पढ़ गया। एक शेर में थोड़ी उलझन लगी इसलिए इस मिसरे को कुछ यूं पढ़ा-
धू धू करती चिमनी से मन उकताया।
इस सुन्दर ग़ज़ल पर हार्दिक बधाई। मतले पर विशेष बधाई।
Comment by maharshi tripathi on February 24, 2015 at 10:48pm

अत्यंत सुन्दर गजल पर आपको हार्दिक बधाई आ.गिरिराज सर ........


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on February 24, 2015 at 5:12pm

आदरणीय बड़े भाई गोपाल जी , मेरा व्यक्तिगत तौर पर यह मानना है कि कोई भी कभी मुकम्मल नहीं हो पाता चाहे ज़िन्दगी भर सीखते रहे । विचार , अनुभव और भाव अपने अपने हो सकते हैं , अलग अलग, पर विधा और व्याकरण तो एक  ही मान्य होना चाहिये , जिसमे गलती की गुंजाइश हमेशा रहती है ॥ आप निःसंकोच ग़लतियाँ बताया कीजिये , मै आपका जीवन भर सीखने वाला आपका अनुज हूँ . मै कभी मुकम्मल नहीं हो सकता । पूर्ण मै केवल ईश्वर को मानता हूँ ॥ सादर निवेदन ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on February 24, 2015 at 3:20pm

आदरणीय श्याम भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका आभारी हूँ ।

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 24, 2015 at 2:05pm

नहीं अनुज

कोई ऐसी बात नहीं  i दरअसल आप इतने मुकम्मिल गजलकार है कि मुझे सोचना पड़ता है कि मेरी टीप तो गलत नहीं है i सादर i

Comment by Shyam Narain Verma on February 24, 2015 at 12:51pm
बहुत बढ़िया गजल बधाई आपको । 

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on February 24, 2015 at 12:34pm

आदरणीय बड़े भाई , मुझे हार्दिक दुख हुआ ,और शर्मिन्दगी भी , कि मेरे किसी व्यवहार के कारण आपको मेरी ही गलती बताने के लिये अपने अनुज से क्षमा याचना करनी पड़ी । सच में मेरी ज़िन्दगी का ये दुखद क्षण है । मैं अपने उस व्यवाहार को याद नहीं कर पा रहा हूँ , पर कुछ न कुछ तो किया ही होउँगा ऐसा । जाने अनजाने में सही अगर आपका दिल दुखया हो तो मै आपसे क्षमा मांगता हूँ ।  ग़ज़ल पर आपकी स्नेह मयी उपस्थिति के लिये औस सलाह के लिये आपका आभारी हूँ ।

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 24, 2015 at 12:22pm

आ 0  अनुज

आपकी गजल पर कुछ कहने से डर लगता है  पर जो मन में आया है वह कहना भी जरूरी है

क्या जज़्बा हाथों से बहते रहता है ?---                  क्या जज्बा हाथो से बहता रहता है

धोते ही हाथों को पानी गँदलाया                           हाथों को धोते ही पानी गंद्लाया

छमा याचना सहित i सादर i

 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on February 24, 2015 at 12:13pm

आदरणीय परि एम श्लोक भाई , गज़ल की सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on February 24, 2015 at 12:12pm

आदरणीय विजय भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया ॥

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