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सब्जी वाला है वो

गरीब है 
पर स्वाभिमानी बहुत है 
सब्जी की ढकेल 
शहर की कोलोनियों में 
घुमाता है
जोर जोर से सब्जियों के
नाम की आबाज
लगाता है
आखिर में ले लो साहब
कहकर जरूर चिल्लाता है
कुछ आदतें हो गयी हैं
उस पर हावी
कल की सब्जियों को भी 
कह जाता है ताजी
कुछ सब्जियाँ
पूरी बिक चुकी होती हैं
उनका भी नाम पुकार जाता है
बीच बीच में पानी के छींटों से
सब्जियों को सँवार जाता है
ऊँचे लोगों की नीची हरकतों को 
बखूबी पहचानता है
लाखों कमाने वालों की 
रुपये दो रुपये की चिक चिक 
को जानता है
पाव सब्जी के बदले 
चार बातें सुना जाते हैं
ये ऊँचे लोग
पता नहीं फिर भी क्यों कहाते हैं 
ये ,ऊँचे लोग
माँ -बाबूजी ,भाई-भाभी
कोई तो नहीं रहता है इनके साथ
इसीलिये तो चार भिण्डियों से
बन जाती है बात
बडे लोगों की छोटी हरकतें 
सहन कर जाता है वो
क्योंकि रोज माँ-बाबूजी की दवाई 
लेकर घर जाता है वो
शाबाश !सब्जी वाले 
हकीकत में तो बडे लोगों से बडा है तू
लाख-गरीब होकर भी 
माँ-बाबूजी के साथ खडा है तू

उमेश कटारा
मौलिक व अप्रकाशित





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Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on March 27, 2015 at 11:06am

बहुत सुंदर, सजीव सा चित्रण. बधाई आदरणीय उमेश जी

Comment by umesh katara on March 27, 2015 at 7:21am

सर मिथिलेश वामनकर जी मैंने कविता के माध्यम से एक सब्जी की फेरी वाले का चित्र खींचने का हल्का सा प्रयास किया है....

Comment by umesh katara on March 27, 2015 at 7:18am

आदरणीया Mohan Sethi 'इंतज़ार'  जी शुक्रिया

Comment by umesh katara on March 27, 2015 at 7:18am

आदरणीया  मिथिलेश वामनकर जी शुक्रिया मन बहुत प्रसन्न हुआ कि आपने मेरी रचनाओं को गहराई से पढ़ते हो ....मैं आपको बिल्कुल गलत नहीं कहुंगा आपके विचार आपके हैं और आलोचनात्मक रवैया रखना भी जरूरी है क्योंकि ये माहौल हमें उत्तरोत्तर सुधार करने को कहता है सादर आभार.......

Comment by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on March 27, 2015 at 6:49am

सुंदर और सत्य....भावपूर्ण ...बधाई 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on March 26, 2015 at 9:52pm

आदरणीय उमेश भाई जी अपने मर्म को अभिव्यक्त करती रचना पर बधाई... 

आप अन्यथा न ले एक बात साझा करना चाहता हूँ कि ये कविता थोड़ी इतिवृत्तात्मक हो गई है.... लग रहा है किसी कहानी/लघुकथा या उसके किसी भाग को काव्य रूप में ढाला गया है, जिसमे काव्यात्मकता कम लग रही है.  हो सकता है अतुकांत कविता की समझ न होने के कारण मुझे ऐसा भ्रम हो रहा हो. आपकी कई अच्छी रचनाएँ पढ़ चूका हूँ इसलिए इस रचना पर विचार साझा कर रहा हूँ. सादर 

Comment by umesh katara on March 26, 2015 at 9:37pm

आदरणीयासुनील प्रसाद(शाहाबादी) जी शुक्रिया

Comment by umesh katara on March 26, 2015 at 9:37pm

आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी शुक्रिया

Comment by umesh katara on March 26, 2015 at 9:36pm

आदरणीय Shyam Mathpal जी शुक्रिया

Comment by umesh katara on March 26, 2015 at 9:35pm

आदरणीय Meena Pathak जी शुक्रिया

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