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" श्रद्धा और अक़ीदत " - [ लघुकथा ] 32 __शेख़ शहज़ाद उस्मानी

जब नदीम उसके साथ चिंताहरण मंदिर में चल रही योगासन कक्षा में शामिल हो सकता है, तो वह उसके साथ मस्जिद में नमाज़ क्यों नहीं अदा कर सकता ? उसकी फ़रमाइश को नदीम हमेशा टाल देता है। मस्जिद न सही आज ईद के दिन सड़क पर तो नमाज़ में शामिल हो सकता है वह ! कौन समझ पायेगा ? वह भी तो महसूस करना चाहता है कि कैसा लगता है नमाज़ अदा करने में ! ये सब सोचकर नीली पोषाक पहने हुए विनोद अपने धार्मिक झाँकी वाले जुलूस में से निकल कर सड़क पर लगी जमात में नदीम को बग़ैेर बताये ठीक उसी के पीछे बैठ गया। ईद की नमाज़ का वक़्त हो गया था, तो किसी का भी ध्यान उस पर नहीं जा पाया।
नमाज़ सम्पन्न होते ही नदीम अपने ठीक पीछे विनोद को देखकर चौंक गया।

"तुम ! क्या कर रहे हो यार, कोई लफड़ा करवाना है क्या ? चलो, यहाँ से चलते हैं ज़ल्दी से !"

"नदीम, तुम घबरा क्यों रहे हो, कोई कुछ नहीं कहेगा, किसी को भी इतनी फुरसत नहीं है यहाँ !"

दोनों ज़ल्दी से निकल कर उस झाँकी वाले जुलूस में शामिल हो गये जो अभी सड़क की दूसरी तरफ ही था।

"हाँ यार, लोग सही कहते हैं कि तुम्हारी 'नमाज़' हमारे 'योग' जैसी ही है !" - विनोद ने नदीम से कहा।

"नहीं भाई, 'योग' योग जैसा है, 'ध्यान' ध्यान जैसा है, और 'नमाज़' नमाज़ जैसी है, इसमें कोई तेरी, मेरी का सवाल नहीं है। जो सच्चे दिल से, श्रद्धा-समर्पण से , अक़ीदत से अदा करे उसी की है !"

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by Rahila on November 13, 2015 at 10:19am
बहुत अच्छा विषय बहुत उम्दा प्रस्तुति । बहुत बधाई आपको आदरणीय उस्मानी जी ।

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