१.
निद्राधीन निस्तब्धता
कुलबुलाता शून्य
सनसनाता पवन
डरता है मन
अर्धरात्रि में क्यूँ
कोई खटखटाता है द्वार
प्रलय, सोने दो आज
------
२.
मेरी ही गढ़ी तुम्हारी आकृति
बारिश की बूँदें
तुम्हारे आँसू
तुम्हारी खिलखिलाती हँसी
कल्पना ही तो हैं सब
वरना
मुद्दतें हो गई हैं तुमसे मिले
-----
३.
कभी अपना, कभी
अपनी छाया का भी
वियोग
दर्द किसका
किसने किसको दिया
किसने ज़्यादा सहा
किसने ज़्यादा दिया
------
४.
रह गया है बस
सुनसान के संग
अजाना सुनसान
परिचित में भी मानो
हैं सब अपरिचित
अवशेष है
परिचित उच्छवास
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-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
इस रचना को मान देने के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय सुशील जी।
//आपकी क्षणिकायें गागर मे सागर की अनुभूति करा रहीं है ..//
आपके यह शब्द मुझको भावमुग्ध कर गए, आदरणीय भाई गिरिराज जी। हार्दिक धन्यवाद।
// अपना ही जिया हुआ अतीत कब स्वप्न सा लगने लगता है , जैसे था ही नहीं। कितना क्षणभंगुर //
आपसे मिली यह सराहना मेरे लिए बहुत निजी है, बहुत ही बहुमूल्य है। आपका आभार, आदरणीय विजय शंकर जी।
रचना की सराहना के लिए हार्दिक आभार, आदरणीय सतविन्द्र कुमार जी।
इन क्षणिकाओं में निहित भावनाओं को महसूस करने के लिए आपका हॄदयतल से आभार, आदरणीय भाई समर कबीर जी।
आदरणीय बड़े भाई विजय जी , आपकी क्षणिकाये गागर मे सागर की अनुभूति करा रहीं है .. गहन एकाकीपन को चित्रित करती आपकी क्षणिकाओं के लिये हार्दिक बधाइयाँ ।
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