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आपकी तीनो क्षणिकायें बहुत शोर करती है। बेचैन करती है ये जीवन के घाट जोड़ को। बड़े होने के हिसाब का हिसाब बड़ा ही बड़प्पन लिए हुए है जहां , वहीँ दूसरी क्षणिका जीवन को नाप-तौल के चलाना , बड़ी ही तीखी कटाक्ष हुआ है। दो रोटियाँ पचाने के लिए किसी का दौड़ने को क्या कहें ! बहुत खूब लेखकीय कर्म है यहां भी आपका। बधाई आपको आदरणीय विजय जी इस अनुपम रचनाओं के लिए। सादर
आदरणीय विजयशंकर भाई,
बड़े ही सटीक , सुंदर , सार्थक ,सामयिक क्षणिकाएँ , हार्दिक बधाई
आदरणीय रमेश कुमार चौहान जी, प्रसंशा और बधाई के लिए बहुत बहुत धन्यवाद।
सुंदर कटाक्ष, सफल प्रयास, बधाई आदरणीय
आपकी बधाई के लिए ह्रदय से धन्यवाद। आदरणीय महिमा श्री जी , आपकी साहित्यिक पसंद सराहनीय है , सादर
रोटी अपनी कीमत खूब जानती है ,
मुफ्त में तो नहीं ही मिलती है ,
मुफ्त में मिल भी जाये
तो पचाने के लिए
मेहनत मांगती है ,
उसी के रूप में
कीमत मांगती है ॥.... तीनो क्षणिकाएँ अपने आप में परिपूर्ण है .जीवन की तल्ख़ सच्चाई का बयाँ है हार्दिक बधाई स्वीकार करे आदरणीय
आदरणीय डॉo पवन कुमार जी , आपको क्षणिकाएँ अच्छी लगी , अच्छा लगा , आपकी बधाई बहुत बहुत धन्यवाद।
आदरणीय डॉo आशुतोष मिश्रा जी , आपको रचना अच्छी लगी ख़ुशी हुयी , आपकी बधाई लिए ह्रदय से धन्यवाद।
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