कल से आगे ............
देवराज इंद्र के दरबार में मौन छाया था।
कोई गंभीर विषय जैसे ताला बनकर सबके होठों पर लटका हुआ था।
इंद्र समेत तेंतीसों देव अपने-अपने आसनों पर विराजमान थे पर सब शान्त थे।
मौन के इस साम्राज्य को तोड़ने का कार्य किया देवर्षि ने जो अपनी वीणा गले में लटकाये, खरताल बजाते, नारायण-नारायण जपते अचानक आकर उपस्थित हो गये।
‘‘नारायण-नारायण ! देवेन्द्र क्या विपत्ति आ गयी जो ऐसा मौन पसरा हुआ है ? न अप्सरायें हैं, न नृत्य संगीत की महफिल है - आखिर क्या हो गया है ?’’
देव उस समय की सर्वाधिक शक्तिशाली संस्कृति थी। इनका निवास उत्तरी हिमालय की गोद में सुरम्य घाटियों के बीच बसे स्वर्गलोक में था। देवों के सर्वाधिक शक्तिशाली होने के पीछे सबसे बड़ा कारण था इनका निवास स्थान जो कि प्रकृति की गोद में किसी भी प्रकार के प्रदूषण से पूर्णतः मुक्त था। प्राकृतिक सुषमा के साथ-साथ अत्यंत पौष्टिक व आयुवर्धक जड़ी-बूटियों की प्रचुर उपलब्धता थी। इन प्राकृतिक देनों के चलते देवों को जरामुक्त लम्बी आयु प्राप्त होती थी। ऊँचा पुष्ट-बलिष्ठ शरीर प्राप्त होता था। इनकी आयु आम मनुष्य से प्रायः डेढ़ से दोगुनी हो जाती थी। कभी-कभी तो वे इससे भी अधिक आयु प्राप्त कर लेते थे - दौ सौ वर्ष से भी अधिक।
वह समय यान्त्रिक सभ्यता का नहीं था। उस समय मनुष्य ने अपनी मानसिक और शारीरिक शक्तियों को चरम तक पहुँचाने में सफलता प्राप्त की थी। आज के वैज्ञानिक शोधों ने प्रतिपादित किया है कि मनुष्य अपने जीवन में अपने मस्तिष्क के बहुत छोटे से अंश का ही प्रयोग कर पाता है। आज भी प्रकृति कुछ लोगों पर अनायास मेहरबान होकर उन्हें अपने मस्तिष्क के कुछ अधिक अंश के उपयोग की सामथ्र्य दे देती है, ऐसे व्यक्ति अपनी उपलब्धियों से हमें चमत्कृत करते रहते हैं। उस समय देवों और ऋषियों ने अपनी साधना के द्वारा मस्तिष्क के अधिकतम अंश के उपयोग की सामथ्र्य प्राप्त कर ली थी।
देवों के कृपापात्र कुछ ऋषि-कुलों को और कुछ आर्य सम्राटों को भी देवलोक में उपलब्ध चमत्कारी जड़ी-बूटियाँ और सोमरस प्राप्त होता था जिनके प्रयोग से वे भी दीर्घायु प्राप्त कर लेते थे। कुछ दैत्य, राक्षस आदि भी त्रिदेवों में से किसी की अनुकम्पा प्राप्त कर इस रहस्य को प्राप्त करने में सफल रहते थे।
ऋषि लोग इस लम्बी आयु का उपयोग भोग में लिप्त होने के स्थान पर मानसिक-आत्मिक शक्तियों के विकास में करते थे। इसी कारण वे ऐसी शक्तियों के स्वामी बन जाते थे जिन्हें आज हम कपोल कल्पना मान लेते हैं।
बहरहाल ! देव दीर्घायु और अद्भुत शारीरिक-मानसिक शक्तियों से सम्पन्न थे। देव लोक भूमण्डल पर निवास के लिये सर्वश्रेष्ठ स्थान था। इसी कारण जो भी दैत्य आदि श्रेष्ठता प्राप्त करते थे वे मन में देवलोक को विजित करने की आकांक्षा अवश्य पालते थे। देव शक्तिशाली थे किंतु उन्होंने कभी अकारण किसी पर आक्रमण नहीं किया। कोई आवश्यकता भी नहीं थी, सब उनकी श्रेष्ठता वैसे ही स्वीकार करते थे। उन्हें आर्य स्वतः यज्ञों के माध्यम से हव्य समर्पित करते थे। देव किसी को नष्ट करने का उद्योग तभी करते थे जब उन्हें प्रतीत होता था कि वह उनके देवलोक को जीतने का प्रयास कर सकता है। इंद्र का सिंहासन प्राप्त करने का प्रयास कर सकता है। किसी प्रतिद्वंद्वी द्वारा देवलोक पर अधिकार कर लेने से उन्हें जो प्राकृतिक उपहार के रूप में जरामुक्त शरीर और अत्यंत दीर्घ आयु प्राप्त थी वह छिन सकती थी। ऐसा होना वे कतई स्वीकार नहीं कर सकते थे। आज भी उनके सामने ऐसी ही समस्या उपस्थित थी।
इंद्र ने नजरें उठाकर नारद को प्रणाम निवेदित किया। शेष देवों ने भी प्रणाम किया। फिर इंद्र ने ही उत्तर दिया- ‘‘देवर्षि आप से क्या छिपा है ? हमारे हृदयों को कौन सा क्लेष घुन बन कर खाये जा रहा है क्या आप नहीं जानते ?’’
नारद हँसे फिर बोले -‘‘तो ऐसे मुँह लटका कर बैठने से क्या हल निकल आयेगा देवेन्द्र ?’’
‘‘फिर क्या करें ?’’
‘‘निश्चित ही आपकी चिंता का कारण पितामह का रावणादि को दिया गया वरदान होगा।’’
‘‘सत्य कहा आपने। लंकेश्वर को ब्रह्मा का वरदान एक ऐसी फांस सा कलेजे में गड़ा है जो कैसे भी निकाले नहीं निकलती। नित्य ही किसी न किसी धर्म संकट में डाल देते हैं पितामह भी।’’
‘‘तो इतने चिंतित क्यों हो गये हो देवेन्द्र। पितामह ने रावण को सहायता का ही तो वचन दिया है। वह कौन सा आपके ऊपर अभी से आक्रमण करने आ रहा है ? अभी से ऐसे भीत बन कर बैठ गये। क्या हो गया देवेन्द्र के पराक्रम को ?’’
‘‘देवर्षि क्या आप जानते नहीं कि रावण सुमाली का दौहित्र है ?’’
‘‘जानता हूँ। भलीभाँति जानता हूँ।’’
‘‘तो यह भी जानते होंगे कि उसका पालन-पोषण ऋषि विश्रवा ने नहीं सुमाली ने ही किया है।’’
‘‘यह भी जानता हूँ।’’
‘‘फिर आप यह बात क्यों नहीं समझ पा रहे कि सुमाली ने उसके हृदय में मेरे लिये अपना सारा विष उँड़ेल दिया होगा। यदि वह अपने पिता के संरक्षण में बड़ा हुआ होता तो उसने उनसे संस्कार पाये होते पर उसे तो संस्कार सुमाली के ही मिले होंगे। वह कब तक नहीं दौड़ेगा स्वर्ग की ओर ? क्या आपको सुमाली की देवों से शत्रुता ज्ञात नहीं। क्या वह विष्णु के हाथों हुई अपनी दुर्गति को बिसार देगा ?’’
‘‘कदापि नहीं ! उसने तो इसी वैर का बदला लेने के लिये ही कैकसी का संयोग ऋषिवर विश्रवा से करवाया होगा। निश्चय ही यह उसकी सोची-समझी योजना है।’’
‘‘फिर भी आप मुझे निश्चिंत रहने के लिये कह रहे हैं ? इन परिस्थितियों में भला मैं कैसे निश्चिंत रह सकता हूँ ?’’
‘‘आह देवेन्द्र ! अभी तो पहले कुबेर के भयभीत होने का समय है। अभी तो पहले सुमाली लंका को हस्तगत करेगा, फिर सैन्य संगठन बनायेगा। देवराज पर आक्रमण अभी बहुत दूर है। सुमाली अबोध नहीं है जो पूरी तैयारी के बिना ही देवलोक पर चढ़ दौड़े। ब्रह्मा ने रावण की वध से रक्षा करने का वचन दिया है, पराजय से नहीं।’’
‘‘पर करेगा तो ?’’
‘‘करेगा तो निश्चय ही और आपको पराजित भी करेगा।
‘‘फिर भी ... फिर भी आप ...’’
‘‘एक बात कहूँ देवेन्द्र ?’’ इंद्र की बात को बीच में ही काट कर नारद बोले।
‘‘कहिये मुनिवर ! आप कब से इतना संकोच करने लगे ?’’
‘‘पितामह तो अपना काम कर चुके। उनके हृदय में रावणादि के लिये नरम कोना होना स्वाभाविक है। यदि उन्होंने देवादि के विरुद्ध उसकी सहायता करने का वचन दे दिया तो अनहोनी कौन सी कर दी ?’’
‘‘अनहोनी नहीं कर दी किंतु हमारे लिये तो चिंता का कारण पैदा कर ही दिया। एक ऐसा कांटा तो बो ही दिया जिसे उखाड़ा नहीं जा सकता। अगर उखाड़ने का प्रयास करेंगे तो पितामह का निरादर करना पड़ेगा। जो कि संभव नहीं है।’’
‘‘देवेन्द्र गजब करते हैं आप भी ! ठीक है पितामह ने कांटा बो दिया तो क्या हुआ। अब आप उसे उखाड़ने का उपाय खोजिये। बहुत समय है आपके पास - आप रावण के रास्ते में कांटे बोइये।’’
‘‘कोई रास्ता है भी ? मुझे तो दिखाई नहीं देता।’’
‘‘उखाड़ने का रास्ता तो खुद रावण ने ही अपने अति आत्मविश्वास में छोड़ दिया है।’’
‘‘देवर्षि पहेलियाँ मत बुझाइये। सीधे-सीधे बताइये कि रास्ता क्या है ?’’
‘‘आह देवेन्द्र ! लगता है हताशा में आपकी बुद्धि भी आपका साथ छोड़ बैठी है।’’
‘‘कर लीजिये उपहास। आपको तो उपहास सूझेगा ही।’’
‘‘उपहास नहीं कर रहा।’’ नारद हँसते हुये बोले- ’’बुद्धि साथ न छोड़ गयी होती तो आप यूँ प्रतीक्षा करते न बैठे होते कि कब रावण आप पर आक्रमण करे और कब आप उससे पराजय स्वीकार कर लें। यदि यही स्थिति रही तब तो देवलोक हाथ से गया ही समझिये देवेन्द्र।’’
‘‘लेकिन मुनिवर उपाय क्या है ?’’ इंद्र कुछ खीजते हुये से बोले।
‘‘रावण त्रिलोक विजेता बनेगा यह तो निश्चित है, इसे कोई नहीं रोक सकता। ग्रहों की चाल उसके पक्ष में है। किंतु देवेन्द्र इसके साथ यह भी तो तय है कि जो बेल अत्यंत शीघ्रता से बढ़ती है वह दीर्घजीवी नहीं होती। दीर्घजीवी तो होता है वट वृक्ष वह कितनी मंद गति से बढ़ता है, आप अनुभव ही नहीं कर पाते उसकी बाढ़ को। आपकी उम्र व्यतीत हो जाती है उसे जस का तस देखते पर वह बढ़ता तो रहता ही है। रावण भी जिस शीघ्रता से शिखर की ओर बढ़ रहा है उससे स्पष्ट है कि उसका पतन भी शीघ्र ही होगा। कुछ काल के लिये थोड़ा सा झुक कर रह लीजिये। कुछ काल के लिये रक्ष वंश की पताका को देव संस्कृति के ऊपर फहरा लेने दीजिये अन्ततोगत्वा तो देव संस्कृति को सर्वश्रेष्ठ आसन पर सुशोभित होना ही है, सदैव की तरह।’’
‘‘यही तो ! यही तो वह कंटक है जो निकल नहीं रहा। देव संस्कृति को झुक कर चलने का अभ्यास नहीं है।’’
‘‘किसे धोखा दे रहे हैं देवराज ? देव संस्कृति को झुकना तो न जाने कितनी बार पड़ा है। असुरों, दैत्यों और कभी-कभी तो आर्यों ने भी देव वंश को पराजय का स्वाद चखाया है। इस बार अन्तर केवल यह है कि इस बार ब्रह्मा के वचन से बँधे विष्णु के छल की माया आपको उपलब्ध नहीं है, जो सदैव पराजय के बाद भी आपका उद्धार करती रही है। यही विषाद आपको खाये जा रहा है। सत्य कहा न मैंने ?’’
‘‘अब जो भी कहिये मुनिवर। आपको तो जले पर नमक छिड़कने में आनंद आता है। आप पर तो बीतती नहीं है।’’
‘‘हाय ! क्या हालत कर दी है पितामह ने अतुलित बलशाली देवों की।’’
‘‘............................’’
‘‘क्या आपको ज्ञात नहीं है कि उसने मानवों को किसी गिनती में ही नहीं लिया है। कहीं ब्रह्मा उसे मानवों के विरुद्ध युद्ध में भी सहायता का वचन दे देते तब तो आप कहीं के नहीं रहते। निश्चय ही इस विषय में सुमाली परामर्श देने के लिये उसे उपलब्ध नहीं रहा होगा।’’
‘‘................................’’
‘‘अब अपने अति आत्म-विश्वास में उसने जो भूल कर दी है, उसी का आसरा करें।’’
‘‘ किंतु किस मानव में इतनी सामथ्र्य है जो उससे टक्कर ले सके ?’’
‘‘वह सामथ्र्य पैदा करें देवेन्द्र ! अपनी सारी कूटनीति, अपने सारे संसाधन प्रयोग करें और मानवों में वह सामथ्र्य पैदा करें कि वे एक दिन रावण से टक्कर ले सकें। और अपने इस उद्यम में अभी से लग जायें।’’
‘‘कैसे मुनिवर ? देखते नहीं आप, ब्रह्मा ने उसे अपनी सारी विद्यायें और दिव्यास्त्र देकर अजेय बना दिया है। कौन ऐसा सम्राट् है आज जो इस स्थिति में उससे टकरा सकता है ?’’
‘‘ऐसा इसलिये है देवेन्द्र कि एक ओर तो अधिकांश सम्राट् विलासी हो गये हैं। ऐश्वर्य भोगते-भोगते कठिन श्रमसाध्य जीवन का उनका अभ्यास ही छूट गया है। दूसरी ओर जनक जैसे साधु चरित्र के सम्राट हैं युद्ध जिनके लिये सर्वथा त्याज्य विषय है।’’
‘‘तो फिर ? स्पष्ट कहें आप जो भी कहना चाहते हैं। मैं पहले ही निवेदन कर चुका हूँ कि पहेलियाँ मत बुझाइये।’’
‘‘सम्राटों का आसरा छोड़िये देवेन्द्र, प्रजा को तैयार कीजिये।’’
‘‘आखिर कैसे ? पूरी बात साफ-साफ, स्पष्ट कह भी दीजिये अब मुनिवर ! बहुत ले चुके हमारे धैर्य की परीक्षा !’’
‘‘तो सर्वप्रथम इस हताशा से बाहर निकलिये। अपनी सामान्य दिनचर्या में जीना आरंभी किजिये। जब तक रावण आप पर आक्रमण नहीं करता तब तक तो आप देवेन्द्र हैं ही। तब तक अपनी इस स्थिति का पूरा आनंद लीजिये जैसे सदैव लेते रहे हैं।’’
‘‘चलिये ठीक है ऐसा ही प्रयास करेंगे। अब कुछ कहिये भी।’’
‘‘ठीक है तो सुनिये।’’
क्रमशः
मौलिक एवं अप्रकाशित
-सुलभ अग्निहोत्री
Comment
वाह .. क्रमशः क्यों आया .. संवाद लगातार बना रहता.. अति उत्तम, आदरणीय.
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