For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

राम-रावण कथा (पूर्व पीठिका) 17

पूर्व से आगे ....

देवर्षि की योजना अंततः इंद्र की समझ में आ गयी।
देवों ने उसके अनुरूप कार्य करना भी आरंभ कर दिया।
योजना यह थी कि देव, लोकपाल, यक्ष, नाग आदि रावण का नाश नहीं कर सकते क्योंकि पितामह ब्रह्मा ने इनके विरुद्ध रावण को अभय दिया हुआ है। उसके नाश का कार्य मानवों द्वारा ही सम्पादित हो सकता है और आर्यावर्त के मानवों में उससे युद्ध के प्रति उत्साह नहीं है। अतः योजना यह थी कि बिना इस बात की प्रतीक्षा किये कि रावण कब स्वर्ग पर आक्रमण किये अभी से दक्षिणावर्त के वनवासियों को उससे लोहा लेने के लिये भलीभांति प्रशिक्षित करना आरंभ कर दिया जाये।
इस कार्य के लिये यह निश्चित हुआ कि महर्षि अगस्त्य की अगुआई में पूरे दक्षिणावर्त क्षेत्र में ऋषियों के आश्रम स्थापित किये जायें जहाँ वे ऋषि और उनके साथ देव भी वनवासियों को अस्त्र-शस्त्र, योग आदि में भली भांति प्रशिक्षित करें। इन वनवासियों के पौरुष में किसी को संदेह नहीं था बस उन्हें उचित प्रशिक्षण की आवश्यकता थी। महर्षि अगस्त्य ने उनका प्रस्ताव सहर्ष स्वीकार कर लिया था।
विश्वामित्र की सहमति थी ही इनके साथ।
अगली कड़ी के रूप में इंद्र महर्षि गौतम से सहयोग की याचना करने मिथिला के किनारे बने उनके आश्रम मंे पहुँचा। महर्षि आश्रम में उपस्थित नहीं थे, इन्द्र का सामना गौतम की पत्नी अहल्या से हुआ। अहल्या त्रिलोक की सर्वश्रेष्ठ सुन्दरियों में स्थान रखती थी। इंद्र उसके गौतम के साथ विवाह के पूर्व से ही उस पर मोहित था और उसे पाना चाहता था। अहल्या से भेंट में उसे लगा कि उसका वह मोह फिर जोर मार रहा है। उसे यह भी लगा कि अहल्या भी उसकी ओर आकृष्ट है। अहल्या ने उसे रोकने का प्रयास किया कि वह रात्र में आश्रम में ही रुके और प्रातः ऋषिवर से भेंट करने के उपरांत ही जाये किंतु इंद्र इस आशंका के चलते कि कहीं रात्रि में उसका मोह उससे कुछ अनुचित आचरण न करवा दे, वहाँ से आ गया।
आश्रम से आने के बाद अहल्या के सम्मोहन से इंद्र बुरी तरह विचलित रहा। उसे किसी भी प्रकार नींद नहीं आई अंततः रात्रि के तीसरे प्रहर में वह अहल्या से प्रणय निवेदन करने का निश्चय कर वापस आश्रम आ गया। यद्यपि इस समय किसे के द्वारा देखे जाने की संभावना नहीं थी फिर भी उसने यान में ही मुनि का वेश धारण कर लिया था। यान को आश्रम से दूर ही छिपा कर उसने आश्रम में प्रवेश किया।

अभी बाल-रवि का आगमन नहीं हुआ था। हाँ कुछ ही देर में प्राची में उनके आगमन का पूर्व-संदेश लेकर उनकी मरीचियाँ सुनहरी लिपि से प्रभाती लिखना आरंभ कर देंगी। फिर धीरे-धीरे प्राची से आगे बढ़कर सम्पूर्ण जगत को अपने प्रभाव में ले लेंगी।
महर्षि गौतम अपने आश्रम की ओर बढ़े चले जा रहे थे। महर्षि के पुत्र शतानन्द महाराज जनक के राजपुरोहित थे। उन्हीं से कुछ आवश्यक परामार्श करने हेतु महर्षि जनकपुरी गये थे। वहाँ से वे रात्रि के तीसरे प्रहर में ही चल दिये थे ताकि प्रातः उनकी नियमित दिनचर्या में कोई व्यवधान न आये। मार्ग में उन्होंने आश्रम से थोड़ी दूर पर ही स्थित नदी में स्नान किया फिर चढ़ाई चढ़ते हुये आश्रम की ओर बढ़ चले। उनके वस्त्र अभी भी गीले थे। वातावरण में पर्याप्त शीतलता थी किंतु महर्षि उससे अप्रभावित अपनी गति से बढ़ते चले आ रहे थे। उन्हें शीत और ग्रीष्म दोनों को ही सहने का पर्याप्त अभ्यास था। ये उनके सुदीर्घ काल के योगाभ्यासी शरीर को व्यथित नहीं करते थे।
आश्रम के द्वार के पास ही उन्हें कोई मुनि वेशधारी आकृति दिखाई पड़ी। पता नहीं क्यों उन्हें लगा कि वह आकृति अपने को छिपाते हुये आगे बढ़ रही है। उन्हें आश्चर्य हुआ कि यहाँ उनके आश्रम में छिप कर आने जाने की किसी को क्या आवश्यकता पड़ गयी ? उनका आश्रम तो सबके लिये खुला है। कुतूहलवश वे एक वृक्ष के पीछे छिप गये और आगन्तुक के निकट आने की प्रतीक्षा करने लगे।
आगन्तुक कुछ निकट आया तो ऋषिवर ने स्पष्ट पहचाना उसे। ‘अरे यह तो देवराज इंद्र हैं। किंतु ये मुनिवेश में और इस समय वह भी कुछ भयभीत से जैसे कोई अनर्थ करके आये हों। और ये स्वयं को छिपाने का प्रयास क्यों कर रहे हैं ? देवेन्द्र को छिपने की क्या आवश्यकता है ? वे तो सर्वत्र सहज स्वागत योग्य हैं ? अवश्य कुछ अघटनीय घटित हुआ है।’ गौतम का मन आशंकित हो उठा। उन्हें स्मरण हुआ कि इंद्र अहल्या से विवाह करना चाहते थे। उन्होंने ब्रह्मा से इस विषय में निवेदन भी किया था। कहीं ... उनकी आशंका और तीव्र हो गयी। उन्होंने अपनी आँखें बन्द कीं और ध्यानस्थ हो गये। पल भर में सारा घटनाक्रम उनकी बन्द आँखों के सामने से गुजर गया।
महर्षि को सामान्यतः क्रोध नहीं आता था किंतु इंद्र के इस अनैतिक कृत्य से और उस कृत्य में अहल्या की मौन सहमति ने अचानक उनके विवेक का जैसे हरण कर लिया। वे क्रोध में एकदम से चीख पड़े -
‘‘देवेन्द्र !!!!’’
इंद्र उनकी आवाज सुन कर चैक कर आवाज की दिशा में घूमा। उसी क्षण ऋषिवर के हाथ में थमा दण्ड अत्यंत वेग से घूमता हुआ आया और किसी भाले की तरह इंद्र की जंघाओं के जोड़ से टकराया। इंद्र भयानक आर्तनाद करता हुआ अपने स्थान पर बैठ गया। उसका अधोवस्त्र रक्त से रंजित होने लगा था। फिर किसी तरह सारी शक्ति संजोकर इंद्र उठा और अपने दोनों हाथों से घायल स्थल को दबाये, लंगड़ाता हुआ अपने यान की ओर भाग लिया।
गौतम ने उसका पीछा करने का कोई प्रयास नहीं किया। किंतु उनका फुफकारता हुआ स्वर उसका पीछा करता रहा -
‘‘नीच ! नराधम ! महर्षि कश्यप के कुल को लजाने वाले भविष्य में अब तू किसी के साथ रमण करने योग्य नहीं रहेगा। मुझे ज्ञात है तेरा अंडकोष विदीर्ण हो गया है। भाग जा कायर ! दुबारा कभी मुझे अपनी सूरत मत दिखाना।’’
इंद्र कुछ भी उत्तर देने के लिये नहीं रुका। वह सीधा अपने यान की ओर गया और उसमें बैठ कर भाग लिया। उसे बस एक ही बात सूझ रही थी कि चेतना खोने से पूर्व उसे देवलोक में पहुँचकर अपना उचित उपचार करवाना है अन्यथा ऋषिवर का कथन सत्य हो जायेगा। वह सत्य ही किसी से रमण करने योग्य नहीं रह जायेगा। उसका अंडकोष सत्य ही गौतम के दंड के वार से विदीर्ण होकर बिखर चुका था।
ये कोलाहल सुनकर समस्त आश्रम जाग गया था और गौतम की ओर भागा आ रहा था। कई लोगों ने भागते हुये इंद्र को देखा था। गौतम का आक्रोश से भरा तीव्र स्वर तो सभी ने सुना था। सभी समझ गये कि क्या घटित हुआ था। देवराज का आचरण तो विलासी था ही, उनके इस कृत्य से किसी को अधिक आश्चर्य नहीं हुआ था। आश्चर्य तो इस बात का था कि एक ऋषिपत्नी ने देवराज के अनाचार में उनका सहयोग किया था। उन्हें सहमति प्रदान की थी। वे सारी निगाहें जो अहल्या के लिये मातृवत सम्मान से भरी रहती थीं अचानक उनमें घृणा भर गयी थी।
मुनिवर ने बिफरते हुये आश्रम में प्रवेश किया। शेष सभी आश्रमवासी भी उनके पीछे थे।
अहल्या सिर झुकाये चबूतरे पर खड़ी हुई थी। गौतम आकर चबूतरे से कुछ दूर ही खड़े हो गये। कुछ देर क्रोध से अहल्या के चेहरे पर दृष्टि गड़ाये रहे फिर शब्दों को चबाते हुये बोले -
‘‘कुलटा ! तुझे यदि इन्द्र से रमण की इतनी ही इच्छा थी तो तभी पितामह से विद्रोह कर उसके साथ क्यों नहीं चली गयी ? मेरे कुल का सर्वनाश करने यहाँ क्यों आ गयी ? विवाह से पूर्व बाल्यकाल में जब मेरी पाल्या बनकर पुत्रीवत मेरे पास रही तब भी तुझे समझ नहीं आया कि गौतम से तुझे पितावत स्नेह मिल सकता है। गौतम को तेरे रूप, तेरे यौवन और तेरे शरीर-सौष्ठव से कोई प्रयोजन नहीं था। वह तो वैसे ही परमानंद में मग्न था। फिर भी गौतम ने तुझे सारे सुख देने का प्रयास किया। तुझे देह का सुख भी दिया। तुझे पुत्र दिया, पुत्री दी और क्या चाहिये था। ऋषिपत्नी थी तू, यह क्या तुझे विवाह के समय ज्ञात नहीं था। तुझे क्या ज्ञात नहीं था कि ऋषिपत्नी का आचरण कैसा होता है, उसकी मर्यादा क्या होती है ? यदि इंद्र ही तुझे अभीष्ट था तो क्यों नहीं विवाह से पूर्व ही पितामह से तू ने स्पष्ट कह दिया कि तुझे इंद्र अभीष्ट है, गौतम नहीं। पितामह से कहने में कोई भय था तो मुझसे ही कह दिया होता मैं ही पितामह को परामर्श देकर तेरा विवाह इंद्र से करवा देता। कलंकिनी ! मेरे कुल का नाश करने चली आई। मेरे कुल के सारे गौरव को धूलि-धूसरित कर दिया।’’
आवेश में ऋषिवर की साँस फूलने लगी थी। वे कुछ रुक कर साँस लेने लगे। किंतु उनकी जलती निगाहें अहल्या के मुख पर ही जमी थीं।
अहल्या भी विदुषी थी, अभिमानिनी थी और रूपगर्विता भी थी। गौतम की आयु उससे बहुत अधिक थी। फिर भी उसने बिना किसी शिकायत के प्रसन्नतापूर्वक उनके साथ निर्वाह किया था। उनके प्रत्येक कार्य में वह अपनी सारी शक्ति से लगी रही थी। यह सच था कि उनसे उसे कोई शारीरिक सुख नहीं मिला था किंतु वहे फिर भी पूरी निष्ठा से उनके प्रति समर्पित रही थी। उनके आश्रम के प्रति समर्पित रही थी। उसकी एक भूल से ही आक्रोषित होकर ऋषिवर ने उसकी सारी निष्ठा और समर्पण को गाली दे दी। इन्होंने स्वयं कितनी बड़ी भूल की थी उसे भार्या के रूप में स्वीकार कर - यह नहीं दिखाई देता इन्हें। अहल्या में भी आक्रोश भरने लगा। अभी तक अपराध-बोध से झुका उसका मस्तक झटके से उठ गया और वह भी जलती हुई निगाहों से गौतम की आँखों में देखने लगी। उसके इस तेवर से गौतम के क्रोध की अग्नि में जैसे घी पड़ गया। वे तिलमिला उठे। उनका शरीर काँपने लगा। वे और जोर से चीख उठे -
‘‘आह ! धृष्टता की पराकाष्ठा ! इतने बड़े दुष्कृत्य के बाद भी आँखों में कोई ग्लानि नहीं। कोई अपराध बोध नहीं ! आह ! शील ही मर गया है लगता है तेरा तो। पूरी वेश्या हो गई है तू तो ...’’
बस ऋषिवर ! अपनी मर्यादा का स्मरण रखें। मुझसे यदि अपराध हुआ है तो आप तो अपराध की पराकाष्ठा को स्पर्श कर रहे हैं। मैं आपकी पत्नी हूँ कोई क्रीतदासी नहीं। सोच-समझ कर शब्द मुख से निकालें।’’ गौतम की बात को बीच में ही काटती हुई अहल्या भी फुफकार उठी।’’
‘‘आह ! अभिमान तो देखो इस कुलटा का ! कोई अपराध बोध नहीं। सम्पूर्ण नारी जाति को लजाने के बाद भी आँखों में कोई शर्म नहीं। असंभव ! अब तेरे साथ निर्वाह नितांत असंभव है। यदि तूने क्षमा मांग ली होती तो गौतम तेरा अपराध संभवतः क्षमा भी कर देता। लोकापवाद की भी चिंता नहीं करता। पर तुझे तो अपने कृत्य पर कोई लाज ही नहीं है। गौतम आज से - इसी पल से तेरा त्याग करता है और समस्त त्रिभुवन को तेरा त्याग करने के लिये निर्देशित करता है। आज से जो भी तेरे साथ कोई भी संबंध रखेगा वह गौतम का कोपभाजन बनेगा।
‘‘चलो सब लोग। इस कुलटा के साथ हम इस आश्रम का भी त्याग करते हैं। यहाँ इसने सारी मर्यादाओं का उल्लंघन करते हुये अपने पे्रमी के साथ रमण किया है। इसके इस घोर दुराचरण से यह आश्रम भी अपवित्र हो गया है। यहाँ अब यज्ञ कार्य सम्पादित नहीं हो सकता। चलो सब लोग। आश्रम का सामान बाँध लो गौओं को खोल लो और चलो और कहीं आश्रम बनाते हैं।’’
इतना कह कर गौतम एक वृक्ष के नीचे बैठ गये। अहल्या धीरे से, बिना कुछ बोले कुटीर के भीतर चली गयी। उसके भाग्य का निर्णय हो गया था। उसे अब आजीवन एकान्तवास करना था। गौतम से तर्क-वितर्क करने का कोई लाभ नहीं था। आवश्यकता भी नहीं थी। उससे अपराध हुआ था किंतु इसका यह अर्थ तो नहीं कि उसका कोई सम्मान ही नहीं। यही है यह पुरुष प्रधान समाज। पुरुष जितने चाहें विवाह करें। जितनी चाहें स्त्रियों से रमण करें, सब क्षम्य है। किंतु स्त्री का छोटा सा कृत्य भी महान अपराध हो जाता है। उसके लिये क्षमा नहीं होती।
वह जानती थी कि गौतम के शब्दों का अनादर कर कोई भी उसकी छाया तक के पास आने का साहस नहीं करेगा। और क्यों करेगा सभी तो गौतम की भांति ही सोचते हैं। सबकी दृष्टि में ही वह महान अपराधिनी हो गयी होगी इस समय। ... और वह इंद्र ... वह अब भी देवेंद्र बना रहेगा। त्रिलोक मंे सम्मानित होता रहेगा। सारे ऋषि-मुनि उसे यज्ञों में सम्मान से आमंत्रित कर हव्य समर्पित करते रहेंगे। बड़ा दोष तो इंद्र का ही है। उसे पथभ्रष्ट करने का आयोजन तो इंद्र ने ही किया है। रमण का प्रस्ताव तो उसके समक्ष इंद्र ने ही रखा था, उसने तो नहीं रखा था ... फिर भी सारा दोष उसका ही हो गया। एकमात्र वही कलंकिनी हो गयी। स्वयं महर्षि गौतम ने भी तो वृद्धावस्था में उस जैसी अपूर्व रूपवती तरुणी से विवाह किया था। क्या यह अपराध नहीं था उनका ? क्यों किया था उन्होंने ऐसा बेमेल विवाह ? उनके इस अपराध का दण्ड कौन देगा ? क्या पितामह देंगे - वे भी तो इस अपराध में सहभागी थे जिन्होंने देवराज के स्थान पर उसका हाथ महर्षि के हाथ में दिया था। ... और यही महर्षि गौतम हैं - न्याय-दर्शन के प्रतिपादक ? कहाँ गया इनका न्याय ? कहाँ गये इनके तर्क ? कहाँ गये इनके प्रत्येक बात को बुद्धि की कसौटी पर परखने का सिद्धांत ? एक जरा से झटके में ही इनकी बुद्धि कुंद हो गयी ? चकनाचूर हो गये सारे सिद्धांत ? बन गये अपने पूर्वाग्रहों-दुराग्रहों से ग्रस्त एक सामान्य व्यक्ति। उसके मस्तिष्क में झंझावात सा चल रहा था। बहुत देर तक वह क्रोध में उफनती रही फिर भूमि पर पड़ कर रोने लगी। न खाया-न पिया, न ही स्नान पूजन कुछ किया बस रोती ही रही। कब दोपहर हुई और कब संध्या हो गयी - उसे पता ही नहीं चला। जब वह कुछ स्वस्थ होकर बाहर निकली तो साँझ ढल चुकी थी, अँधेरा घिरने लगा था। आश्रम में सन्नाटा पसरा हुआ था। ऋषि गौतम के साथ सारे आश्रमवासी किसी अज्ञात स्थान के लिये प्रस्थान कर चुके थे। सारी गौयें और अन्य पशु-पक्षी भी उन्हीं के साथ चले गये थे। रह गयी थी निपट अकेली अहल्या।
अब वह स्वस्थ हो गयी थी। उसने स्नान किया। दीपक जलाये और फिर समाधि में बैठ गयी - परमप्रभु की आराधना के लिये। उसने अखंड तपस्या से अपने माथे पर लगे इस कलंक को धोने का दृढ़ निश्चय कर लिया था।

इंद्र पर महर्षि का एक ही दण्ड प्रहार अत्यंत घातक सिद्ध हुआ था। उसका अण्डकोष क्षत-विक्षत हो गया था। महर्षि ने ठीक ही कहा था कि अब वह किसी के साथ रमण करने लायक ही नहीं रहेगा किंतु वे भूल गये थे कि यह इंद्र था, देवराज ! वह समय से स्वर्ग पहुँच गया था। अश्विनी-कुमार ने समय से उसके मृतप्राय अंग का प्रत्यारोपण कर दिया था। कुछ ही दिनों में वह पूर्ण स्वस्थ हो गया और पुनः अपने रावण-अभियान में लग गया था। अहल्या को शायद भूल ही गया था। उसका मनोरथ तो पूर्ण हो चुका था। वह अहल्या को प्राप्त कर चुका था अब उसे अपने गले में लटका कर रखने का कोई अर्थ नहीं था। उसके समक्ष अपना इंद्रासन बचाना अधिक महत्वपूर्ण था। हाँ ! इस अभियान के एक महत्वपूर्ण सहयोगी से वह हाथ धो बैठा था। महर्षि गौतम आश्रमवासियों को उनकी स्वेच्छा पर छोड़कर स्वयं हिमालय की कंदराओं में तपस्या के लिये चले गये थे - पूर्ण रूप से एकाकी, अहल्या की ही भांति - जब तक अहल्या शाप मुक्त नहीं हो जाती तब तक के लिये। जो दण्ड उन्होंने अपनी पत्नी को दिया था वह उसी मात्रा में स्वयं भी ग्रहण कर लिया था।

क्रमशः

मौलिक एवं अप्रकाशित

- सुलभ अग्निहोत्री

Views: 546

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 18, 2016 at 7:17pm

अहल्या प्रकरण को तनिक नया रूप देना हुआ है. किन्तु, यह एक ऐसा आयाम है जो प्रासंगिकता का भरपूर वहन करता है..

शुभ-शुभ

 

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity


सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक. . . .तकदीर
"आदरणीय अच्छे सार्थक दोहे हुए हैं , हार्दिक बधाई  आख़िरी दोहे की मात्रा फिर से गिन लीजिये …"
6 hours ago
सालिक गणवीर shared Admin's page on Facebook
10 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी's blog post was featured

एक धरती जो सदा से जल रही है [ गज़ल ]

एक धरती जो सदा से जल रही है   ********************************२१२२    २१२२     २१२२ एक इच्छा मन के…See More
Tuesday

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी posted a blog post

एक धरती जो सदा से जल रही है [ गज़ल ]

एक धरती जो सदा से जल रही है   ********************************२१२२    २१२२     २१२२ एक इच्छा मन के…See More
Tuesday
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा सप्तक. . . .तकदीर

दोहा सप्तक. . . . . तकदीर   होती है हर हाथ में, किस्मत भरी लकीर । उसकी रहमत के बिना, कब बदले तकदीर…See More
Tuesday
Admin added a discussion to the group चित्र से काव्य तक
Thumbnail

'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 166

आदरणीय काव्य-रसिको !सादर अभिवादन !!  ’चित्र से काव्य तक’ छन्दोत्सव का यह एक सौ छियासठवाँ आयोजन है।.…See More
Monday

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-173
"आदरणीय  चेतन प्रकाश भाई  आपका हार्दिक आभार "
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-173
"आदरणीय बड़े भाई  आपका हार्दिक आभार "
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-173
"आभार आपका  आदरणीय  सुशील भाई "
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-173
"भाई अखिलेश जी, सादर अभिवादन। गजल की प्रशंसा के लिए हार्दिक आभार।"
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-173
"भाई चेतन जी, सादर अभिवादन। गजल की प्रशंसा के लिए धन्यवाद।"
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-173
"भाई अमीरुद्दीन जी, सादर अभिवादन। गजल की प्रशंसा के लिए आभार।"
Sunday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service