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पानी वाला बादल हो ,
नदियों में फिर हलचल हो ।
गाँवों की पनघट पे अब ,
फिर से बजती पायल हो ।
झूठे वादों से ऊपर ,
कोई तो ऐसा दल हो ।
जिसमें राहत हो सबको ,
आने वाला वो कल हो ।
सारे दुख सह जाऊँ मैं ,
सर पे माँ का आँचल हो ।
साफ़ हवा पानी पायें ,
पेड़ों वाला जंगल हो ।
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Mohammed Arif on March 15, 2017 at 6:35pm
बहुत-बहुत आभार अपनी निरपेक्ष रूप से प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिए आदरणीय राघव प्रियदर्शी जी ।
Comment by Mohammed Arif on March 14, 2017 at 7:24pm
बहुत-बहुत शुक्र गुजार हूँ आली जनाब मोहतरम समर कबीर साहब । लेखन सार्थक हुआ ।
Comment by Samar kabeer on March 14, 2017 at 6:17pm
जनाब मोहम्मद आरिफ़ साहिब आदाब,उम्दा ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।

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