दिल रेल की पटरी है
और तुम एक आती-जाती ट्रेन
तुम सीने को रौंद के जाते हो
तभी अच्छे लगते हो
जब मुफ़स्सिल बियाबानों से
कोहसारों की खुशबू लाते हो
तभी अच्छे लगते हो
कभी चलते-चलते सीटी बजाते,
कभी पहियों से गुनगुनाते हो
तभी अच्छे लगते हो
कभी सुबह की किरणों के संग जगाते
कभी रातों को झुरमुटों में सुलाते हो
तभी अच्छे लगते हो
कभी रुकने वाले स्टेशनों पर न रुक कर
किसी अनजान से मोहल्ले में रुक जाते हो
तभी अच्छे लगते हो
तुम न रहकर भी कभी मेरे सीने पे आरूढ़
मेरी अबाध निस्सृतता में सदैव बहते हो
मीलों बिछी पटरियों में निभृत मेरी अनंतता को
एक तुम ही तो समझते हो
दिल रेल की पटरी है
और तुम एक आती-जाती ट्रेन
तुम सीने को रौंद के जाते हो
तभी अच्छे लगते हो
~ राज़ नवादवी
(मौलिक और अप्रकाशित)
मुफ़स्सिल बियाबानों से- दूरस्थ जंगलों से; कोहसारों की खुशबू- घाटियों की महक; आरूढ़- सवार, आसीन; निस्सृतता- बाहर बहता हुए होने का भाव; निभृत- अकेला, स्थिर, गुप्त.
Comment
शुक्रिया आदरणीयमिथिलेश जी, आपका दिल से आभार.
शुक्रिया आदरणीय सतविंदर जी, आपका दिल से आभार.
आदरणीय राज़ नवादवी जी बहुत सुन्दर प्रस्तुति हुई है हार्दिक बधाई आपको
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