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तेरी हर शै मुझे भाए, तो क्या वो इश्क़ होगा
मुझे तू देख शरमाए, तो क्या वो इश्क़ होगा
कभी हो इश्क़ तो रुन-झुन कहीं महसूस होगी
इशारे कर के समझाए तो क्या वो इश्क़ होगा
पिए ना जो कभी झूठा, मगर मिलने पे अकसर
गटक जाए मेरी चाए, तो क्या वो इश्क़ होगा
सभी से हँस के बोले, पीठ पीछे मुंह चिढ़ाए
मेरे नज़दीक इतराए, तो क्या वो इश्क़ होगा
हज़ारों बार हाए, बाय, उनको बोलने पर
पलट के बोल दे हाए, तो क्या वो इश्क़ होगा
सभी रिश्ते, बहू, बेटी, बहन, माँ, के निभा कर
मेरे पहलू में इठलाए, तो क्या वो इश्क़ होगा
तुझे सोचा नहीं होता अभी, पर यक-ब-यक ही
नज़र आएं तेरे साए तो क्या वो इश्क़ होगा
तेरी खातिर कहे हैं शेर, मैंने ज़िन्दगी के
तेरा दिल ही न छू पाए, तो क्या वो इश्क़ होगा
हवा मगरिब, मैं मशरिक, उड़ के चुन्नी आसमानी
मेरी जानिब चली आए तो क्या वो इश्क़ होगा
उसे छू कर, मुझे छू कर, कभी जो शोख तितली
उड़ी जाए उड़ी जाए, तो क्या वो इश्क़ होगा
नदी, झरने, पवन, झींगुर, सितारे, मेघ, तितली
जिसे देखूं वही गाए, तो क्या वो इश्क़ होगा
मुझे तू एक टक देखे, कहीं खो जाए, पर फिर
अचानक से जो मुस्काए, तो क्या वो इश्क़ होगा
मौलिक व् अप्रकाशित
Comment
आदरणीय नासवा जी सूंदर पेशकश । बधाई ।
बहुत आभार समर कबीर साहब आपका इस मार्ग दर्शन के लिए ...
जी,यही बहतर है,सहीह निर्णय ।
सहमत हूँ आदरणीय समर जी ... इस शेर को खारिज करना ही उचित है ...
मेरे नज़दीक "चाये" क़ाफ़िया उचित नहीं है ।
बहुत शुक्रिया आदरणीय समर साहब ... चाय, चाये ... मैंने चाए बना के इस्तेमाल किया है ... वैसे चाय ही ठीक शंड है शायद ...
उम्मीद है ख़ारिज नहीं होगा ये शेर ...
जनाब दिगंबर नासवा जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
'गटक जाए मेरी चाए, तो क्या वो इश्क़ होगा'
'चाय' कि "चाये"?
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