For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

राम-रावण कथा (पूर्व-पीठिका) 34

कल से आगे ..............................

रावण उल्लसित भी था और व्यथित भी। उसे शिव जैसे शक्तिशाली व्यक्ति की अनुकंपा प्राप्त हो गयी थी पर वह अपनी मूेर्खता को कैसे भूल सकता था। शिव अगर चाहते तो उसे भुनगे की तरह मसल सकते थे पर उन्होंने उसे छोड़ दिया था। छोड़ ही नहीं दिया था अपना वात्सल्य भी प्रदान किया था। उसकी सारी अवज्ञा को क्षमा कर दिया था। कितना अद्भुत शौर्य है उनमें, शायद त्रिलोक में दूसरा कोई नहीं होगा उनकी समता करने वाला फिर भी कितना शांत व्यक्तित्व है। अपनी शक्ति का कोई दंभ नहीं। अपने सर्वश्रेष्ठ होने का भान होते हुये भी ब्रह्मा के वचनों का सम्मान करते हैं। दूसरी ओर वह स्वयं है जो एक कुबेर पर विजय प्राप्त करने भर से अपने को सर्वश्रेष्ठ समझने लगा। दंभ के वशीभूत हो उनसे लड़ने पहुँच गया। खैर ! जो हुआ सो अच्छा ही हुआ। अगर वह नंदी की ही बात मान कर लौट आता तो शिव की कृपा कैसे प्राप्त होती ! सोचते-सोचते वह हँस पड़ा।


शिव के व्यक्तित्व का रावण पर अद्भुत प्रभाव पड़ा था। कुबेर पर विजय प्राप्त करने से उसमें जो आत्मश्लाघा का भाव उत्पन्न हो गया था वह फिलहाल एक कोने में दुबक गया था। वह पुनः निर्मल हृदय हो गया था। कैलाश में शिव का आशीर्वाद प्राप्त कर रावण ने इच्छा व्यक्त की थी कि इन रमणीय घाटियों का आनन्द लिया जाये। भला किसी को क्या आपत्ति हो सकती थी। अतः अब वे कैलाश की तलहटी में विचरण कर रहे थे। वहाँ की प्राकृतिक सुषमा का आनंद ले रहे थे। सुमाली चाहता था कि अब लंका वापस लौटा जाय और आगे के अभियानों की रूपरेखा बनाई जाय। कुबेर पर विजय तो मात्र भूमिका थी। वास्तविक कथानक तो देवेंद्र पर विजय से लिखा जाना था। वह दिन भी आयेगा जब रावण त्रैलोक्य विजयी बनेगा। और उसका संरक्षक सुमाली त्रिलोक में सबसे सम्मानित व्यक्तित्व होगा। किंतु रावण था कि शिव से मिलने के बाद से अचानक फिर विरक्तों का सा आचरण कर रहा था। उसे जैसे लंका वापस लौटने की कोई उत्कंठा ही नहीं थी।


अचानक एक दिन रावण बोला -
‘‘आप लोग पुष्पक लेकर लंका की ओर प्रस्थान करें। मैं एक वर्ष यहीं साधना करूँगा। शिव के साथ मैंने जो अभद्रता की है उसका प्रायश्चित करूँगा।’’
‘‘किंतु सम्राट् ...’’ प्रहस्त ने विरोध करना चाहा पर रावण ने उसकी बात बीच में ही काट दी।
‘‘कोई किंतु-परंतु नहीं मातुल। मैंने निश्चय कर लिया है।’’
‘‘किंतु सम्राट् की अनुपस्थिति साम्राज्य के स्वास्थ्य के लिये हितकर नहीं होती, लंकेश्वर ! सुमाली ने कहा।
‘‘आप सब लोग हैं तो। और फिर एक वर्ष बाद मैं भी वापस लौट ही आऊँगा। संभव है इसके पूर्व ही लौट आऊँ।’’
‘‘सम्राट् वहाँ सारे लंकावासियों के साथ-साथ महारानी मंदोदरी भी आपकी प्रतीक्षा में होंगी। कितने दिन हुये हैं अभी आपके विवाह को।’’
‘‘तो क्या हुआ मातामह ! रावण कोई सन्यास तो नहीं ले रहा, बस कुछ समय यहाँ एकान्त में बिताना चाहता है। पुनः थोड़ा आत्म-साक्षात्कार कर स्वयं को भविष्य के लिये तैयार करना चाहता है। और फिर मंदोदरी कोई आम स्त्री नहीं है, वह लंका की साम्राज्ञी है। उसे तो इसका अभ्यास डालना ही पड़ेगा।’’
‘‘और महाराज आपका पुत्र, नन्हा सा मेघनाद ! क्या उससे मिलने का मन नहीं होता आपका ?’’ प्रहस्त ने कहा।
‘‘क्यों दुखती रग छेड़ रहे हैं मातुल ? उससे मिलने का तो बहुत मन होता है, किंतु यह भी आवश्यक है।’’
सबने बहुत समझाया किंतु रावण नहीं माना। अंततः हार कर सब लोग चले गये। ठीक एक वर्ष बाद उसे लेने आने का वायदा करके।
रावण ने एक बार पुनः सन्यासी का बाना धारण कर लिया था। प्रातः उठता, नित्य कर्म करता और ध्यानस्थ होने का प्रयास करने लगता। योग समाधि का उसे बचपन से ही पर्याप्त अभ्यास था किंतु इस समय कभी-कभी उसका अभ्यास उसे धोखा भी दे जाता था। सही से ध्यान नहीं लग पाता था - कभी पत्नी मन्दोदरी का मुख सामने आ जाता तो कभी पुत्र का ‘अब कितना बड़ा हो गया होगा मेघनाद ? कभी शिव के बारे में सोचने लगता ‘कैसा अद्भुत व्यक्तित्व है उनका।’


जब भी भूख लगती तो जंगल में कन्द-मूल की कमी नहीं थी। रात्रि में विश्राम के लिये कोई समस्या नहीं थी एक विशाल कुटिया जब सब लोग यहाँ थे तो उन्होंने बनाई थी, उसी में विश्राम करता। जंगली पशु अभी तक कोई सामने नहीं आया था। आता भी तो उसका डर नहीं था। प्रभु शिव का दिया चन्द्रहास उसके पास था। निश्चय ही शिव के समान ही अद्भुत था उनका खड्ग भी। सामान्य पुरुष तो उसे उठा भी नहीं सकता था। रावण उसके एक ही वार से विशाल वृक्ष का तना काट सकता था।


इस समय वह पूर्णतः शिवमय था। उसने शिवताण्डव स्तोत्रम् की रचना कर डाली थी जो युगों तक उसे अमर करने के लिये पर्याप्त था। और भी अनेक रचनायें अपने आप फूट रही थीं। सब उसे सहज ही कंठस्थ होती जा रही थीं। जैसे ही वह ध्यान में बैठता तो जैसे स्रोतस्विनी फूट पड़ती। उसके आध्यात्मिक उत्कर्ष के सर्वश्रेष्ठ कालों में से एक था यह काल। ऐसे ही दो माह कब गुजर गये, उसे पता ही नहीं चला।

एक दिन ऐसी ही एक लम्बी योग समाधि के बाद जब उठा तो निकल गया वन में भ्रमण करने। कितनी देर भ्रमण करता रहा उसे नहीं पता। शरीर वन में भ्रमण कर रहा था तो मन विचारों की उलझी गलियों में भ्रमित हो रहे थे। उसे पता ही नहीं था कि किधर से आया था और किधर जा रहा है, बस चलता जा रहा था। फिर मन किया तो एक पेड़ के तने से टेक लगाकर बैठ गया। अचानक एक भयंकर गर्जना की आवाज से उसकी तंद्रा टूटी। उस गर्जना के साथ ही किसी नारी कंठ की भयभीत चीख भी थी। वह चैंक कर सतर्क हो गया - यह तो किसी सिंह की आवाज लगती है। खैर सिंह तो संभावित है इस निर्जन वन में पर यह नारी कंठ की चीत्कार कैसी थी ? इस भयंकर निर्जन प्रान्त में किसी नारी की उपस्थिति का क्या प्रयोजन ?’ वह उठ खड़ा हुआ और सतर्क भाव से चीख की दिशा में बढ़ने लगा। चन्द्रहास तो जैसे उसके शरीर का भाग बन गया था, वह इस समय भी उसके हाथ में था। थोड़ी ही दूर पर उसे हिरनों का एक भयभीत झुण्ड भागता दिखाई दिया। उस झुण्ड के पीछे एक बदहवास स्त्री चली आ रही थी। थोड़ी दूर पर एक झाड़ी के पीछे से झांकता एक सिंह का सिर दिखाई दे रहा था। सिंह ने फिर एक दहाड़ मारी। दहाड़ से जैसे स्त्री और भी घबरा गयी। उसने भागते-भागते ही पीछे देखने की कोशिश की। इसी प्रयत्न में वह लड़खड़ाई, उसे किसी चीज की ठोकर लगी और वह मुँह के बल गिर पड़ी। सिंह झाड़ी से बाहर आ गया था और स्त्री की ओर झपटने को तत्पर था। रावण इस समय कुछ भी सोच नहीं रहा था। उसकी सारी अन्यमनस्कता तिरोहित हो गयी थी। वह जैसे किसी अदृश्य शक्ति से संचालित उस स्त्री की ओर दौड़ पड़ा।
इसी समय सिंह ने भी छलांग मार दी। दूसरी छलांग में सिंह स्त्री के शरीर के ऊपर था और उसी क्षण रावण भी उसके सम्मुख था। सिंह को यह अयाचित आगन्तुक पसंद नहीं आया था। उसके अगले दोनों पैर स्त्री के शरीर के दोनों ओर थे। उसी अवस्था में वह रावण की ओर घूरते हुये गुर्राने लगा। रावण भी स्थिर खड़ा उसकी आँखों में आँखें डाले था। दो कदम और बढ़ते ही सिंह उसके चन्द्रहास के वार की परिधि में होता। अचानक सिंह ने स्त्री को छोड़कर रावण पर झपट्टा मार दिया। सिंह का झपटना और रावणा का चन्द्रहास वाला हाथ घूमना एक साथ हुआ। हाथ के साथ-साथ रावण खुद भी 180 अंश तक घूम गया। अगले ही पल सिंह धड़ से दो भागों में विभक्त हुआ उसके पैरों के पास भूमि पर पड़ा था। उसकी रीढ़ की हड्डी तक कट कर अलग हो गयी थी। उसकी आँते बाहर आ गयी थीं। उसके चारों ओर रक्त का कुण्ड बनने लगा था। रावण ने दो लम्बी-लम्बी साँसें लीं फिर सिंह पर से अपनी निगाहें हटा लीं और उस स्त्री की ओर आकर्षित हुआ जो कदाचित भय से अपनी चेतना खो बैठी थी।


रावण स्त्री के पास घुटने के बल बैठ गया। उसने कंधे से पकड़ कर स्त्री को सीधा किया। उसकी आँखें फटी हुयी थीं। रावण ने उसकी गर्दन पर हाथ रख कर देखा - रग में हरकत थी। मतलब अभी जीवित थी, भय से उसके प्राण पखेरे उड़ नहीं गये थे। स्त्री की मृगछाल घुटनों से बहुत ऊपर खिसक आई थी, लगभग समस्त जंघायें अनावृत्त थी। रावण ने मृगछाल को व्यवस्थित किया फिर सिर को झटक कर अपना ध्यान उधर से हटाया। उसने स्त्री को झकझोर कर उसकी चेतना वापस लाने का प्रयास किया पर कोई हरकत नहीं हुई। क्या करे वह ? कुछ पल और झकझोरने के बाद अन्ततः उसने स्त्री को उठाकर कंधे पर डाल लिया और अपनी कुटिया की ओर चलने का निश्चय किया। पर किधर थी उसकी कुटिया ? विचारों में खोया वह किधर आ गया था यह उसे पता ही नहीं था। फिर उसने चारों ओर निगाह दौड़ाई, शायद स्त्री का ही ठिकाना दिखाई पड़ जाये। वह अधिक दूर से तो यहाँ तक नहीं आई होगी। थोड़े ही प्रयास से उसे पेड़ों के झुरमुट में छिपी एक झोपड़ी सी दिखाई पड़ गयी। वह उधर ही बढ़ चला। झोपड़ी अधिक दूर नहीं थी। झोपड़ी क्या यह एक छोटा सा आश्रम था। झोपड़ी के बाहर भूमि साफ कर उसमें पर्याप्त फुलवारी उगाई हुई थी जिनकी सुवास से रावण का मन प्रसन्न हो गया। एक ओर एक गाय बँधी हुई थी। फुलवारी को पार कर उसने झोपड़ी में पड़ी एक चटाई पर स्त्री को लिटा दिया। उसने चारों ओर निगाह दौड़ाई, एक कोने में एक मिट्टी का घड़ा रखा था। उसके ऊपर एक ताम्र पात्र रखा था। निश्चय ही उसमें जल होगा। रावण ने घड़े से उस ताम्र पात्र में जल लाकर स्त्री का मुँह धो दिया। फिर एक पात्र जल और लाकर उसके सिर पर डाल दिया। इतने से स्त्री में धीरे-धीरे चेतना के चिन्ह जाग्रत होने लगे। कुछ ही पलों में उसने आँखें खोल दीं। फिर एकदम से झपट कर उसने उठने का प्रयास किया।


‘‘लेटी रहो अभी।’’ रावण ने कहा।
स्त्री ने रावण की ओर अचम्भे से देखा
‘‘मैं ... मैं... वह सिंह ... ?
‘‘सिंह को मैंने मार दिया। तुम ठीक हो। बस डर गयी हो।’’ वह फिर एक पात्र भर लाया -
‘‘लो जल पियो।’’
स्त्री ने कोहनी के बल उठते हुये पात्र ले लिया। जल पीकर वह अपेक्षाकृत स्वस्थ दिखाई पड़ने लगी।
‘‘शायद यह तुम्हारा ही आश्रम है ?’’ रावण ने प्रश्न किया।
‘‘हाँ।’’
‘‘लेकिन तुम एकाकी यहाँ ... शेष सब कहाँ हैं ?’’
‘‘मैं यहाँ एकाकी ही रहती हूँ।’’
‘‘सच में ? आश्चर्य है !’’
‘‘लेकिन वह सिंह ?’’ स्त्री को फिर जैसे कुछ याद आ गया, उसकी आँखों में फिर से भय तैर गया।
‘‘बताया तो, मैंने मार दिया उसे। यह देखो उसका रक्त अभी तक टपक रहा है चन्द्रहास से।’’ रावण ने चन्द्रहास की ओर संकेत करते हुये कहा।
स्त्री ने उधर देखा। देख कर शायद उसे तसल्ली मिली, उसने एक लम्बी सी साँस ली।
‘‘अब ठीक लग रहा है ?’’ थोड़े से मौन के बाद रावण ने सहानुभूति से प्रश्न किया।
स्त्री ने धीरे से सिर हिला दिया और उठने का प्रयास किया। रावण ने उसे फिर रोकने का प्रयास किया -
‘‘अभी थोड़ा और विश्राम कीजिये। अभी आप पूर्णतः स्वस्थ नहीं हुई हैं।’’
‘‘किंतु यह अशिष्टता है। आप अतिथि है। ऊपर से आपने मेरी प्राण रक्षा की है।’’
‘‘सो तो की है।’’ रावण हल्के से हँसा। -‘‘ लेकिन आप सिंह का भोजन बनने गईं क्यों थीं। अगर मैं दैवयोग से वहाँ न होता तो आप का तो काम हो गया था।’’
‘‘वह तो हो ही गया था। मैं ने तो गिरते ही मान लिया था कि सिंह ने मुझे खा लिया है।’’ वह भी हँस पड़ी। हँसी के साथ ही उसके चेहरे पर लाज की लाली भी दौड़ गयी।
‘‘अब मैं स्वस्थ हूँ।’’ कहते हुये इस बार वह रावण के रोकते रहने पर भी उठ बैठी। - ‘‘इससे पूर्व कभी सिंह दिखा नहीं इस क्षेत्र में। मैंने तो जन्म ही इसी आश्रम में लिया है।’’ वह जैसे स्वगत भाषण कर रही थी। फिर वह उठी और कुटिया के एक कोने में एक केले के पत्ते से ढँके कन्द मूल रखे थे। वह उन्हें उठा लाई और रावण के सामने रख दिये।
‘‘लीजिये ।’’ अब उसका ध्यान गया कि रावण जमीन पर ऐसे ही एक घुटना टिकाये बैठा है।
‘‘अरी मेरी मइया ! आप भूमि पर ही बैठे हैं। आप इधर बैठिये।’’ उसने चटाई खाली कर दी और रावण से बैठने का आग्रह किया।
‘‘और आप ?’’
‘‘आप अतिथि है। प्राणरक्षक हैं। मैं भूमि पर बैठ जाऊँगी।’’
‘‘नहीं ! यह नहीं होगा।’’ रावण ने स्पष्ट इनकार कर दिया।
‘‘बिलकुल होगा। बैठिये।’’ अचानक ही स्त्री के स्वर में अधिकार का पुट आ गया।
रावण उसकी ओर देखने लगा फिर उठकर चटाई पर एक कोने में आ खड़ा हुआ -
‘‘एक ही सूरत में, चटाई पर्याप्त बड़ी है आप भी बैठिये।’’
‘‘चलिये, यह किया जा सकता है।’’ वह भी चटाई के दूसरे कोने पर आ गई। ‘‘अब तो बैठिये।
दोनों बैठ गये तो रावण ने पूछा -
‘‘क्या आपके एकाकी इस भयानक वन में रहने का कारण जान सकता हूँ ?’’
‘‘निश्चय ही ! किन्तु अतिथि देव पहले अपना परिचय दें फिर मैं अपना सम्पूर्ण वृत्तांत बताऊँगी।’’
‘‘मैं महर्षि पुलस्त्य का पौत्र, वैश्रवण रावण।’’
‘‘धन्य हुई वेदवती आपके दर्शन प्राप्त कर। पिताश्री अक्सर महर्षि पुलस्त्य और महर्षि विश्रवा की चर्चा करते थे।’’
‘‘वह तो ठीक किंतु अब आपकी बारी है।’’
‘‘हाँ !’’ वह स्त्री सुलभ मन्द हास्य से हँस पड़ी। हँसते समय उसके गालों में पड़ने वाले गड्ढों में जैसे रावण का मन डूब गया। अब रावण ने उसकी ओर ध्यान से देखा। ओह ! अगर रावण ने माता पार्वती के दर्शन न प्राप्त किये होते तो यही सोचता कि इससे सुन्दर रचना तो सृष्टि में हो ही नहीं सकती। किस चीज की बखान करे, प्रत्येक अंग जैसे पुष्पशर का वाण था। विधाता की अनुपम कृति, देखने वाले को मंत्रमुग्ध कर लेने वाला। रावण भी विमोहित सा हो गया। शरीर पर वस्त्र के रूप में मृगछाला थी जिससे घुटनों के नीचे की सुदीर्घ पैर और कदली स्तंभवत सुचिक्कण जंघाओं का भी कुछ भाग अनावृत्त था। मृगछाला एक कंधे पर गाँठ के सहारे रुकी थी। दूसरा कंधा अनावृत्त था। पूर्ण विकसित उन्नत वक्ष की ऊपरी गोलाइयाँ मृगछाला के ऊपर से झाँकती हुई आमंत्रित सा कर रही थीं। कंधों से निकली कमलनाल के समान शोभायमान सुदीर्घ नीरोम भुजायें जैसे रावण के मन को अपनी मुट्ठी में कस लेने को तत्पर थीं। चेहरा अद्वितीय, कोई उपमा नहीं थी उसकी।
‘‘कहाँ खो गये वैश्रवण !’’
‘‘ओह !’’ रावण चैंककर सचेत हुआ। ‘‘आपके लावण्य ने चेतना को बंदी बना लिया था। क्षमा करें।’’
‘‘हाँ आगे से सचेत रहें। मेरे पिता मुझे विष्णु को समर्पित कर चुके हैं।’’
‘‘देवी प्रयास करूँगा किंतु मन तो बहुधा बुद्धि के आदेश की अवहेलना कर ही जाता है।’’ रावण ने कहा ‘‘आप अपने विषय में बता रही थीं।’’
‘‘सुनने वाला सुनने की स्थिति में आये तब न बताऊँ !’’ वह हँसी फिर कहने लगी ‘‘मेरे पिता बृहस्पति के पुत्र ऋषि कुशध्वज थे। माता-पिता यहीं इसी आश्रम में तपस्या करते थे। यहीं मेरा जन्म हुआ। मैं बड़ी हुई तो तमाम देव, गंधर्व आदि पिता से मेरा हाथ माँगने आने लगे किंतु पिता ने कहा कि उनमें से कोई भी मेरे योग्य नहीं था। उन्होंने संकल्प किया था कि मेरे योग्य सृष्टि में मात्र विष्णु हैं, वे मुझे उन्हींको समर्पित करेंगे। इससे कुपित होकर अचानक एक दिन दैत्य शुम्भ ने सोते हुये पिता की हत्या कर दी। माता भी उन्हीं के साथ चिता में जलकर सती हो गयीं। मैं कहाँ जाती, आश्रम के सिवा मैं कुछ जानती ही नहीं थी। यहीं मैंने सारा बचपन बिताया, यहीं पिता से शिक्षा प्राप्त की। मैंने निश्चय किया कि मेरे पिता जो चाहते थे मैं वही मार्ग अपनाऊँगी। इसलिये मैं यहीं विष्णु की तपस्या कर रही हूँ। एक न एक दिन मेरा व्रत अवश्य सफल होगा और विष्णु मेरा वरण करेंगे। बस इतनी सी है मेरी कहानी।’’
‘‘क्या रावण आपका हाथ माँगने की धृष्टता कर सकता है ?’’
‘‘आपने मेरी प्राणरक्षा की है किंतु मेरे पिता मुझे विष्णु को समर्पित कर चुके हैं और मैं भी मन से इसे स्वीकार कर चुकी हूँ। इस प्रकार मैं विष्णु की वाग्दत्ता हूँ, मैं अन्य किसी पुरुष के विषय में सोच भी नहीं सकती।’’
‘‘दुर्भाग्य रावण का। फिर भी रावण आस नहीं छोड़ेगा। क्या पता भाग्य किसी दिन उस पर कृपालु हो जाये और आप अपना निर्णय बदल दें।’’
‘‘अतिथि ! ऐसा नहीं होगा। मात्र आस रखना, आशा को पूर्ण करने हेतु कोई दुस्साहस मत कर डालना अन्यथा वेदवती इस शरीर को अग्नि को समर्पित कर देगी।’’
रावण अवाक रह गया। वह कुछ नहीं बोला। सामने के फल वैसे ही रखे थे। किंचित मौन के बाद वेदवती पुनः बोली -
‘‘वैश्रवण ! आप अकस्मात कहाँ से प्रकट हो गये थे मेरी प्राण रक्षा के लिये ? यहाँ पूर्व में तो कभी आपके दर्शन हुये नहीं !’’
रावण ने संक्षेप में सारी कथा सुना दी। फिर थोड़ी देर मौन रहा। साँझ हो गयी थी, रावण उठ खड़ा हुआ और बोला -
‘‘तो अब अनुमति दीजिये, थोड़े ही काल में रात्रि हो जायेगी।’’
‘‘आपका आश्रम कहाँ पर है ?’’
‘‘क्या कीजियेगा जान कर ? रावण की आशा तो आप तोड़ ही चुकी हैं।’’
‘‘इस निर्जन वन के हम दो ही निवासी हैं। एक-दूसरे का स्थान ज्ञात होना ही चाहिये। फिर मुझे विश्वास है कि वैश्रवण का चरित्र इतना दुर्बल नहीं हो सकता जो मेरी इच्छा के बिना बलात संयोग का प्रयास करे। सबसे अधिक मुझे अपने ऊपर विश्वास है।’’
रावण ने एक दीर्घ निश्वास ली फिर बोला -
‘‘अपनी कुटिया तो इस समय मुझे भी ज्ञात नहीं। अन्यमनस्क सा पता नहीं कहाँ-कहाँ भटकता हुआ आपके पास पहुँच गया था। शायद नियति ही मुझे वहाँ खींच कर ले गयी थी। किंतु मैं खोज लूँगा, आप चिंता न करें।’’ कहते हुये रावण ने चन्द्रहास उठाया। उसने उसे पकड़े-पकड़े ही हाथ जोड़ दिये और आश्रम से बाहर निकल आया।
थोड़े से प्रयास से ही रावण अपने स्थान पर पहुँच गया। रात हो गई थी किंतु पूरा खिला हुआ चंद्रमा पर्याप्त प्रकाश दे रहा था। रावण आ कर बिछावन पर लेट गया। उसका आज कुछ भी खाने का मन नहीं हुआ।
रात भर उसे नींद नहीं आई।

क्रमशः

मौलिक तथा अप्रकाशित

-सुलभ अग्निहोत्री

Views: 459

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

सुरेश कुमार 'कल्याण' posted a blog post

पूनम की रात (दोहा गज़ल )

धरा चाँद गल मिल रहे, करते मन की बात।जगमग है कण-कण यहाँ, शुभ पूनम की रात।जर्रा - जर्रा नींद में ,…See More
yesterday

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी posted a blog post

तरही ग़ज़ल - गिरिराज भंडारी

वहाँ  मैं भी  पहुंचा  मगर  धीरे धीरे १२२    १२२     १२२     १२२    बढी भी तो थी ये उमर धीरे…See More
yesterday

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी commented on गिरिराज भंडारी's blog post ग़ज़ल -मुझे दूसरी का पता नहीं ( गिरिराज भंडारी )
"आदरणीय लक्ष्मण भाई , उत्साह वर्धन के लिए आपका हार्दिक आभार "
yesterday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-176
"आ.प्राची बहन, सादर अभिवादन। दोहों पर उपस्थिति और उत्साहवर्धन के लिए आभार।"
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Dr.Prachi Singh replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-176
"कहें अमावस पूर्णिमा, जिनके मन में प्रीत लिए प्रेम की चाँदनी, लिखें मिलन के गीतपूनम की रातें…"
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-176
"दोहावली***आती पूनम रात जब, मन में उमगे प्रीतकरे पूर्ण तब चाँदनी, मधुर मिलन की रीत।१।*चाहे…"
Saturday
Admin replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-176
"स्वागतम 🎉"
Friday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

सुखों को तराजू में मत तोल सिक्के-लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

१२२/१२२/१२२/१२२ * कथा निर्धनों की कभी बोल सिक्के सुखों को तराजू में मत तोल सिक्के।१। * महल…See More
Thursday
Admin posted discussions
Jul 8
Admin added a discussion to the group चित्र से काव्य तक
Thumbnail

'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 169

आदरणीय काव्य-रसिको !सादर अभिवादन !!  ’चित्र से काव्य तक’ छन्दोत्सव का यह एक सौ…See More
Jul 7
Nilesh Shevgaonkar commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की - ताने बाने में उलझा है जल्दी पगला जाएगा
"धन्यवाद आ. लक्ष्मण जी "
Jul 7
Nilesh Shevgaonkar commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की - मुक़ाबिल ज़ुल्म के लश्कर खड़े हैं
"धन्यवाद आ. लक्ष्मण जी "
Jul 7

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service