2×15
बीच सफर में धीरज टूटा,हाथों से पतवार गई.
मेरे मन की लाचारी से मेरी कोशिश हार गई.
एक अधूरा ख्वाब जो मुद्दत से आंखों में जिंदा है,
उसको लिखने की कोशिश में स्याही भी बेकार गई.
पिछले साल में और कोई था अब के साल में और कोई,
एक नए इजहार को चाहत फूलों के बाजार गई.
बरसों पहले जिसको चाहा उसकी यादें साथ रहें,
एक दुआ के आगे मेरी हर इक ख्वाहिश हार गई.
पापा की आंखों ने उसको जाने क्या क्या समझाया,
बेटी जब कालेज की खातिर घर से पहली बार गई.
जिस घर की तामीर में हमने सारा जीवन खपा दिया,
उस घर की सारी बातें अब दीवारों के पार गई.
आने वाला कल कैसा हो एक ढकी सी बात है ये,
आज मगर तकदीर के आगे सब तदबीरें हार गई.
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
आ. भाई मनोज जी, अच्छी गजल हुई है , हार्दिक बधाई ।
'बेटी जब कालेज में पढ़ने' कर लीजिएगा ...सादर
आदरणीय रवि भसीन शाहिद जी बहुत-बहुत शुक्रिया मेरे दिमाग में भी यह बात थी और कई लोगों ने भी सुझाव दिया आपका सुझाव उत्तम है मुझ को स्वीकार करता हूं
आदरणीय मनोज भाई, आपको इस ख़ूबसूरत ग़ज़ल पर हार्दिक बधाई। ख़ास तौर से मुझे आपका ये शेर बहुत अच्छा लगा:
पापा की आंखों ने उसको जाने क्या क्या समझाया
बेटी जब कालेज की खातिर घर से पहली बार गई
एक सुझाव देना चाहूँगा कि "कालेज की ख़ातिर" की जगह "कालेज पढ़ने को" लगा कर देखियेगा।
बेहद ध्यान से गज़ल पढ़कर आपने इस्लाह की है बेहदशुक्रगुज़ार हूँ
इन कमियों को दूर करने का प्रयास करूंगा
हार्दिक आभार
जनाब मनोज अहसास जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें ।
'उस घर की सारी बातें अब दीवारों के पार गई'
इस मिसरे में रदीफ़ बदल कर "गईं" हो रही है,ग़ौर करें ।
'आज मगर तकदीर के आगे सब तदबीरें हार गई'
इस मिसरे में रदीफ़ बदल कर "गईं" हो रही है,ग़ौर करें ।
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