प्यार का प्रपात
प्यार में समर्पण
समर्पण में प्यार
समर्पण ही प्यार
नाता शब्दों का शब्दों से मौन छायाओं में
आँखों और बाहों का हो महत्व विशाल
बह जाए उस उच्च समर्पण में पल भर में
सिमटा बैठा था मन में जो समस्त विषाद
जो प्यार ही बन जाए परम्परा
प्यार ही हो यदि रसमय इमान
स्वर्ग-सी लगे यह सारी धरा
उठे उसमें जब प्यार का उफ़ान
बन जाए उस सुरभिमय धारणा में
प्यार ही प्रगति की प्रेरणा
प्यार ही उन्माद से बेचैन वासंती बयार
आया हो मानो उर के आंगन में कोई
झरता नया सजीला सम्मोहित मधुमास
दीखता है तब अधखुले वातायन से भी
चहुँ ओर पथ-दर्शक प्रकाश ही प्रकाश
लगता है बढ़ा कर बाहों का विस्तार
थाम लिया हो बेमाप प्यार में मानो
दोनों हाथों में अरुणाभ आकाश
माझी मेरे ... सुन मेरे माझी
ले जा मुझे आ रहा है जहाँ से
दूर, दूरतर वंशी-स्वर मृदुल
उग रहा है जहाँ प्यार के आवाहन में
उल्लास भरा उज्वल नवल प्रभात
प्यार में समर्पण
समर्पण में प्यार
माझी मेरे ले जा मुझको
बसता हो जहाँ ऐसा अकल्पित प्यार
-------
-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, मित्र लक्ष्मण जी
आ. भाई विजय निकोर जी, सादर अभिवादन । अच्छी रचना हुई है ,हार्दिक बधाई ।
आपका हार्दिक आभार, मेरे भाई समर कबीर जी। मनोबल बढ़ाते रहें।
प्रिय भाई विजय निकोर जी आदाब, बहुत उम्द: रचना हुई है, इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
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