मज़ारे मुसम्मन अख़रब मक्फूफ़ महज़ूफ़
मफ़ऊलु फ़ाइलातु मुफ़ाईलु फ़ाइलुन
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ये दिल इबादतों पे तो माइल नहीं हुआ
मुनकिर न था मगर कभी क़ाइल नहीं हुआ
इसको बचा बचा के यूँ कब तक रखेंगे आप
वो दिल ही क्या जो इश्क़ में घाइल नहीं हुआ
ग़ैरत थी कुछ अना थी किया ज़ब्त उम्र भर
मैं तिश्नगी में जाम का साइल नहीं हुआ
दर्जा अदब का ऊँचा है मज़हब से जान लो
शाइर कभी भी वज्ह-ए-मसाइल नहीं हुआ
क्या क्या इलाज हमने किये क़ल्ब के मगर
जादू किसी के प्यार का ज़ाइल नहीं हुआ
मंज़ूर था हमें तो ख़ुदा उसको मानना
राज़ी मगर वो हूर-शमाइल नहीं हुआ
हीरा तो हूँ मगर कहीं कुछ ऐब है ज़ुरूर
गर्दन में उनकी मैं जो हमाइल नहीं हुआ
रातों को जाग कर लिखी 'शाहिद' ये शाइरी
शौक़-ए-सुख़न म'आश में हाइल नहीं हुआ
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आ. भाई रवि भसीन जी, सादर अभिवादन । अच्छी गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
आदरणीय समर कबीर साहब, बहुत बहुत शुक्रिया आपके मेहर-ओ-करम का।
// ये दिल इबादतों पे क्यूँ माइल नहीं हुआ
मुनकिर न था तो क्यूँ भला क़ाइल नहीं हुआ//
जी,अब ठीक है,ऊला में 'क्यों' की जगह "जो" कर लें ।
आदरणीय समर कबीर साहब, आदाब। हुज़ूर मैंने मतले में कुछ रद्द-ओ-बदल की है, अगर आप एक बार देख लें तो बड़ी इनायत होगी:
ये दिल इबादतों पे क्यूँ माइल नहीं हुआ
मुनकिर न था तो क्यूँ भला क़ाइल नहीं हुआ
आदरणीय समर कबीर साहब, सादर प्रणाम। हौसला-अफ़ज़ाई के लिए बेहद शुक्रगुज़ार हूँ। जी बेहतर है जनाब, मतले पर दोबारा ग़ौर करता हूँ।
जनाब रवि भसीन 'शाहिद' जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है,बधाई स्वीकार करें ।
मतले के दोनों मिसरों में रब्त नहीं है,देखियेगा ।
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