हुस्न-ए-ग़ज़ल
2 1 2 2 / 1 2 1 2 / 2 2
है ग़ज़लगोई यार की बातें
शे'र सुनना ख़ुमार की बातें
शे'र पढ़ना हसीं तरन्नुम में
जैसे हों लालाज़ार की बातें…
ContinueAdded by रवि भसीन 'शाहिद' on October 19, 2022 at 12:11am — 11 Comments
1212 / 1122 / 1212 / 22(112)
हूँ किसके ग़म का सताया न पूछिये साहिब
जफ़ा-ए-इश्क़ का क़िस्सा न पूछिये साहिब [1]
तमाम उम्र उसे दूर से ही देख के बस
सुकून कितना है पाया न पूछिये साहिब [2]
लहू भी थम सा गया दर्द को भी राहत…
ContinueAdded by रवि भसीन 'शाहिद' on October 16, 2022 at 1:06pm — 13 Comments
2122 / 1212 / 22
हर तरफ़ रौशनी के डेरे हैं
मेरी क़िस्मत में क्यूँ अँधेरे हैं [1]
एक अर्सा हुआ उन्हें खोये
अब भी कहता है दिल वो मेरे हैं [2]
और कुछ देर हौसला रखिये
शब के…
ContinueAdded by रवि भसीन 'शाहिद' on October 7, 2022 at 11:30am — 12 Comments
22 / 22 / 22 / 22 / 22 / 22
एक नया दस्तूर चलाया जा सकता है
ग़म को भी महबूब बनाया जा सकता है [1]
अपने आप को यूँ तड़पाया जा सकता है
बीती बातों पर पछताया जा सकता है [2]
यार की बाँहों में अब दम घुटता है मेरा
जन्नत से भी तो उकताया जा सकता है [3]
आशिक़ सा मासूम कहाँ पाओगे जिस से
अपना कह कर सब मनवाया जा सकता है [4]
पहली बार महब्बत छूती है जब दिल को
उस लम्हे को कैसे भुलाया जा सकता है [5]
जीत…
ContinueAdded by रवि भसीन 'शाहिद' on August 9, 2020 at 12:42pm — 17 Comments
बह्रे मज़ारे मुसम्मन अख़रब मकफ़ूफ़ महज़ूफ़
221 / 2121 / 1221 / 212
मुहलत जो ग़म से पाई थी वो भी नहीं रही
इक आस जगमगाई थी वो भी नहीं रही [1]
देकर लहू जिगर का मसर्रत जो मुट्ठी भर
हिस्से में मेरे आई थी वो भी नहीं रही [2]
शाहाना तौर हम कभी अपना नहीं सके
आदत में जो गदाई थी वो भी नहीं रही [3]
दुनिया घिरी है चारों तरफ़ से बुराई में
बंदों में जो भलाई थी वो भी नहीं रही…
Added by रवि भसीन 'शाहिद' on August 2, 2020 at 3:25pm — 12 Comments
122 / 122 / 122 / 122
मक़ाम ऐसे चाहत में आने लगे हैं
अब उनके सितम दिल को भाने लगे हैं [1]
मज़े वस्ल में पहले आते थे जो सब
हमें अब वो फ़ुर्क़त में आने लगे हैं [2]
उन्हीं का तो ग़म हमने ग़ज़लों में ढाला
ये एहसाँ वो हम पर जताने लगे हैं [3]
नया जौर का सोचते हैं तरीक़ा
वो उँगली से ज़ुल्फ़ें घुमाने लगे हैं [4]
मुझे लोग दीवाना समझेंगे शायद
मेरे ख़त वो सबको सुनाने लगे हैं [5]
हुए इतने बेज़ार ज़ुल्मत से…
ContinueAdded by रवि भसीन 'शाहिद' on July 27, 2020 at 9:59am — 13 Comments
2122 / 1122 / 1122 / 22
उस अधूरी सी मुलाक़ात पे रोना आया
जो न कह पाए हर उस बात पे रोना आया [1]
दूरियों के थे जो क़ुर्बत के भी हो सकते थे
ऐसे खोए हुए लम्हात पे रोना आया [2]
दे गए जाते हुए वो जो ख़ज़ाना ग़म का
जाने क्यूँ उस हसीं सौग़ात पे रोना आया [3]
रो लिए उनके जवाबात पे हम जी भर के
फिर हमें अपने सवालात पे रोना आया [4]
आँख भर आई अचानक यूँ ही बैठे बैठे
क्या बताएँ तुम्हें किस बात पे रोना आया [5]
दिल तो…
ContinueAdded by रवि भसीन 'शाहिद' on July 26, 2020 at 4:46pm — 11 Comments
बह्रे मुजतस मुसम्मन मख्बून महज़ूफ मक़्तूअ'
1212 / 1122 / 1212 / 22
क़रार-ए-मेहर-ओ-वफ़ा भी नहीं रहा अब तो
महब्बतों में मज़ा भी नहीं रहा अब तो [1]
जहाँ से मुझको गिला भी नहीं रहा अब तो
मलाल इसके सिवा भी नहीं रहा अब तो [2]
ख़बर जहान की तुम पूछते हो क्या यारो
मुझे कुछ अपना पता भी नहीं रहा अब तो [3]
जिसे सँभाल के रक्खा था इक निशानी सा
मेरा वो ज़ख़्म हरा भी नहीं रहा अब तो [4]
है बेवफ़ाई में उसकी ग़ज़ब की…
ContinueAdded by रवि भसीन 'शाहिद' on July 13, 2020 at 12:00am — 8 Comments
बह्रे रमल मुसम्मन महज़ूफ़
2122 / 2122 / 2122 / 212
जिस तरफ़ देखूँ है तन्हाई किसे आवाज़ दूँ
हर मसर्रत दिल की गहनाई किसे आवाज़ दूँ
ना-उमीदी दिल पे है छाई किसे आवाज़ दूँ
दौर-ए-ग़म से रूह घबराई किसे आवाज़ दूँ
बंद है हर दर यहाँ तो हर गली वीरान है
ज़िन्दगी मुझको कहाँ लाई किसे आवाज़ दूँ
कोई भी ऐसा नहीं जो दर्द-ओ-ग़म समझे मेरा
हर तरफ़…
Added by रवि भसीन 'शाहिद' on July 8, 2020 at 2:01pm — 7 Comments
212 / 1222 / 212 / 1222
दुनिया के गुलिस्ताँ में फूल सब हसीं हैं पर
एक मुल्क ऐसा है जो बला का है ख़ुद-सर
लाल जिसका परचम है इंक़लाब नारा है
ज़ुल्म करने में जिसने सबको जा पछाड़ा है
इस जहान का मरकज़ ख़ुद को गो समझता है
राब्ता कोई दुनिया से नहीं वो रखता है
अपनी सरहदों को वो मुल्क चाहे फैलाना
इसलिए वो हमसायों से है आज बेगाना
बात अम्न की करके मारे पीठ में खंजर
और रहनुमा उसके झूट ही बकें दिन भर
इंसाँ की तरक़्क़ी…
Added by रवि भसीन 'शाहिद' on July 3, 2020 at 1:00am — 10 Comments
बहरे मज़ारे मुसम्मन अख़रब मक्फूफ़ महज़ूफ़
221 / 2121 / 1221 / 212
बद-हालियों का फिर वही मंज़र है और मैं
इक आज़माइशों का समंदर है और मैं [1]
अरमान दिल के दिल में घुटे जा रहे हैं सब
महरूमियों का एक बवंडर है और मैं…
ContinueAdded by रवि भसीन 'शाहिद' on June 16, 2020 at 11:54am — 17 Comments
ख़फ़ीफ़ मुसद्दस मख़बून महज़ूफ़ मक़तू'अ
2122 / 1212 / 22
ये जो कुछ ख़्वाब पाल बैठे हैं
जान आफ़त में डाल बैठे हैं [1]
दिल से हम को निकाल बैठे हैं
देखिए पुर-मलाल बैठे हैं [2]
कह चुके हैं हमें वो जाने को
फिर भी देखो मजाल बैठे हैं [3]
बढ़ गए आगे सब हुनर वाले
हम यहीं बे-कमाल बैठे हैं [4]
अब ज़रूरत नहीं सलाहों की
हम तो सिक्का उछाल बैठे हैं [5]
मेरे और उनके दरमियाँ जाने
कितने ही माह-ओ-साल बैठे हैं…
Added by रवि भसीन 'शाहिद' on June 8, 2020 at 12:30pm — 13 Comments
221 / 2121 / 1221 / 212
उस बेवफ़ा से दिल का लगाना बहुत हुआ
मजबूर दिल से हो ये बहाना बहुत हुआ [1]
छोड़ो ये ज़ख़्म-ए-दिल का फ़साना बहुत हुआ
ये आशिक़ी का राग पुराना बहुत हुआ [2]
चलते ही चलते दूर निकल आये इस क़दर
ख़ुद से मिले हुए भी ज़माना बहुत हुआ [3]
ख़ुद से भी कोई रोज़ मुलाक़ात कीजिये
ये दूसरों से मिलना मिलाना बहुत हुआ [4]
तस्कीन दे न पाएँगे काग़ज़ पे कुछ निशाँ
लिख लिख के उसका नाम मिटाना बहुत हुआ [5]
अब इक…
ContinueAdded by रवि भसीन 'शाहिद' on May 24, 2020 at 10:32am — 8 Comments
हज़ज मुसम्मन महज़ूफ़
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन
1222 / 1222 / 1222 / 122
अभी भी है तुम्हें उस बेवफ़ा से प्यार? जी हाँ
निभाने को ये ग़म ता-उम्र हो तय्यार? जी हाँ [1]
उसे देखे बिना इक पल नहीं था चैन दिल को
उसे फिर देखना चाहोगे तुम इक बार? जी हाँ [2]
सिवा ज़िल्लत मिला कुछ भी नहीं कूचे से उसके
अभी भी क्या तुम्हें जाना है कू-ए-यार? जी हाँ [3]
पता तो है तुम्हें सर माँगती है ये मुहब्बत
तो क्या जाओगे हँसते हँसते…
Added by रवि भसीन 'शाहिद' on March 26, 2020 at 3:38pm — 5 Comments
रमल मुसम्मन सालिम मख़्बून महज़ूफ़ / महज़ूफ़ मुसक्किन
फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फ़इलुन/फ़ेलुन
2122 1122 1122 112 / 22
ये सफ़र है बड़ा दुश्वार ख़ुदा ख़ैर करे
राह लगने लगी दीवार ख़ुदा ख़ैर करे [1]
इस किनारे तो सराबों के सिवा कुछ भी नहीं
देखिए क्या मिले उस पार ख़ुदा ख़ैर करे [2]
लोग खाते थे क़सम जिसकी वही ईमाँ अब
बिक रहा है सर-ए-बाज़ार ख़ुदा ख़ैर करे [3]
ये बग़ावत पे उतर आएँगे जो उठ बैठे
सो रहें हाशिया-बरदार ख़ुदा ख़ैर करे…
Added by रवि भसीन 'शाहिद' on March 20, 2020 at 7:00pm — 16 Comments
बहरे हज़ज मुसद्दस महज़ूफ़
1 2 2 2 / 1 2 2 2 / 1 2 2
जो तेरी आरज़ू खोने लगा हूँ
जुदा ख़ुद से ही मैं होने लगा हूँ [1]
जो दबती जा रही हैं ख़्वाहिशें अब
सवेरे देर तक सोने लगा हूँ [2]
बड़ी ही अहम हो पिक फ़ेसबुक पर
मैं यूँ तय्यार अब होने लगा हूँ [3]
जो आती थी हँसी रोने पे मुझको
मैं हँसते हँसते अब रोने लगा हूँ [4]
बढ़ाता जा रहा हूँ उनसे क़ुरबत
मैं ग़म के बीज अब बोने लगा हूँ [5]
जो पुरखों की दिफ़ा…
ContinueAdded by रवि भसीन 'शाहिद' on March 15, 2020 at 1:00am — 11 Comments
बहरे मुतक़ारिब मुसम्मन मक़बूज़ अस्लम
121 22 121 22
फ़रेब-ओ-धोका है ये अदालत
करेगा तू क्या मिरी वकालत [1]
रसूल कितने ही आ चुके पर
गई न इंसान की जहालत [2]
सनम रिझाएँ ख़ुदा मनाएँ
है गू-मगू की ये अपनी हालत [3]
जो मुड़ गया राह-ए-इश्क़ से तो
रहेगी ता-उम्र फिर ख़जालत [4]
किसे फ़राग़त जो दे तवज्जो
दिखाइएगा किसे बसालत [5]
है मुख़्तसर मेरी गुफ़्तगू पर
है ग़ौर और फ़िक्र में तवालत…
Added by रवि भसीन 'शाहिद' on March 10, 2020 at 5:30pm — 5 Comments
बह्र मुतक़ारिब असरम मक़्बूज़ महज़ूफ़ 16-रुक्नी
(बह्र-ए-मीर)
2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2
छुपे हैं जाने कितने क़िस्से होली के इन रंगों में
प्यार मुहब्बत यारी रिश्ते होली के इन रंगों में
बच्चों की अठखेली इनमें और दुआएँ पुरखों की
जवाँ दिलों के ख़्वाब मचलते होली के इन रंगों में
नीला सब्ज़ गुलाबी पीला लाल फ़िरोज़ी नारंगी
जीवन के सब रंग झलकते होली के इन रंगों में
सदा मनाते आए होली मिल कर सब हिंदुस्तानी…
Added by रवि भसीन 'शाहिद' on March 10, 2020 at 12:00am — 4 Comments
बह्र हज़ज मुसम्मन सालिम
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
1222 1222 1222 1222
सियासत में शरीफ़ इन्साँ कोई हो ही नहीं सकता
सियासतदान सा शैताँ कोई हो ही नहीं सकता
जो नफ़रत की दुकानों में है शफ़क़त ढूँढता फिरता
उस इन्साँ से बड़ा नादाँ कोई हो ही नहीं सकता
निकाला जा रहा है जो जनाज़ा ये सदाक़त का
तबाही का सिवा सामाँ कोई हो ही नहीं सकता
बिरादर को बिरादर से रफ़ाक़त अब नहीं बाक़ी
ये नुक़साँ से बड़ा नुक़साँ कोई हो ही नहीं…
Added by रवि भसीन 'शाहिद' on February 29, 2020 at 10:30pm — 6 Comments
मज़ारे मुसम्मन अख़रब मक्फूफ़ महज़ूफ़
मफ़ऊलु फ़ाइलातु मुफ़ाईलु फ़ाइलुन
2 2 1 / 2 1 2 1 / 1 2 2 1 / 2 1 2
ये दिल इबादतों पे तो माइल नहीं हुआ
मुनकिर न था मगर कभी क़ाइल नहीं हुआ
इसको बचा बचा के यूँ कब तक रखेंगे आप
वो दिल ही क्या जो इश्क़ में घाइल नहीं हुआ
ग़ैरत थी कुछ अना थी किया ज़ब्त उम्र भर
मैं तिश्नगी में जाम का साइल नहीं हुआ
दर्जा अदब का ऊँचा है मज़हब से जान लो
शाइर कभी भी वज्ह-ए-मसाइल नहीं हुआ
क्या क्या…
ContinueAdded by रवि भसीन 'शाहिद' on February 27, 2020 at 11:12pm — 6 Comments
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