बह्रे मुजतस मुसम्मन मख्बून महज़ूफ मक़्तूअ'
1212 / 1122 / 1212 / 22
क़रार-ए-मेहर-ओ-वफ़ा भी नहीं रहा अब तो
महब्बतों में मज़ा भी नहीं रहा अब तो [1]
जहाँ से मुझको गिला भी नहीं रहा अब तो
मलाल इसके सिवा भी नहीं रहा अब तो [2]
ख़बर जहान की तुम पूछते हो क्या यारो
मुझे कुछ अपना पता भी नहीं रहा अब तो [3]
जिसे सँभाल के रक्खा था इक निशानी सा
मेरा वो ज़ख़्म हरा भी नहीं रहा अब तो [4]
है बेवफ़ाई में उसकी ग़ज़ब की बेबाकी
नज़र वो मुझ से चुरा भी नहीं रहा अब तो [5]
करोगे चारागराँ तुम इलाज क्या मेरा
मरज़ रहीन-ए-दवा भी नहीं रहा अब तो [6]
है ज़ाहिदों की नज़र कैसी ये लगी तौबा
हमारी मय में नशा भी नहीं रहा अब तो [7]
सरों को ढकने की बातें पुरानी छोड़ो अब
यहाँ हिजाब-ए-क़बा भी नहीं रहा अब तो [8]
न जाने कितने ही हिस्सों में बँट गए हैं हम
हमारा एक ख़ुदा भी नहीं रहा अब तो [9]
सफ़र से लौट के 'शाहिद' न आ सकूँ शायद
मैं अपने घर को सजा भी नहीं रहा अब तो [10]
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय रूपम कुमार 'मीत' भाई, आपकी ज़र्रा-नवाज़ी और भरपूर हौसला-अफ़ज़ाई के लिए आपका बेहद शुक्रगुज़ार हूँ!
जनाब रवि भसीन शाहिद जी ख़ाक़सार की तनक़ीद को इतना सहज और सकारात्मक भाव से लेने के लिए और हौसला अफ़ज़ाई के लिये तहे-दिल से शुक्रिया। सादर।
आदरणीय अमीरुद्दीन 'अमीर' साहिब, ग़ज़ल को अपना क़ीमती वक़्त देने के लिए आपका हार्दिक आभार। आपके सभी सुझावों का बहुत स्वागत है, और सभी सुझाव क़ाबिल-ए-ग़ौर-ओ-फ़िक्र हैं। और सबसे अच्छी बात ये है कि आपने मिस्रे भी सुझाए हैं, आपका तह-ए-दिल से शुक्रिया।
/मलाल और कोई भी नहीं रहा अब तो/
हुज़ूर इस मिस्रे को इस्तेमाल करने से क़ाफ़िया छूट जाएगा।
/जिसे सँभाल के रक्खा था - वो ज़ख़्म क्यों (हरा) नहीं रहा/
जी यहाँ भाव ये है कि हम यादों को चाहे जितना भी सँभाल कर रखना चाहें, वो वक़्त के साथ धुँधली पड़ ही जाती हैं।
/इस शैर के ऊला में लफ़्ज़ चारागराँ मुनासिब नहीं है क्योंकि "चारागराँ" को इज़ाफ़त के साथ जैसे - ग़म-ए-चारागराँ या दस्तरस-ए-चारागराँ वगैरह कह सकते हैं यहाँ आप " चारागरों " लिख सकते हैं/
जी 'चारागराँ' 'चारागर' का बहुवचन है, और इज़ाफ़त के बिना भी इस्तेमाल किया जा सकता है, जैसे:
पारा-पारा हुआ पैराहन-ए-जाँ
फिर मुझे छोड़ गये चारागराँ
(सय्यद रज़ी तिरमिज़ी)
हुज़ूर, 'हिजाब' को यहाँ 'modesty' के भाव से इस्तेमाल किया है।
आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' भाई, ग़ज़ल तक आने के लिए और प्रोत्साहित करने के लिए आपका हार्दिक आभार!
आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप' साहिब, आपकी भरपूर दाद-ओ-तहसीन और हौसला-अफ़ज़ाई के लिए तह-ए-दिल से आपका आभारी हूँ।
जनाब रवि भसीन 'शाहिद' साहिब आदाब,
आपकी इस प्यारी सी ग़ज़ल में ख़फ़ीफ़ तरमीम के बाद उम्दा ग़ज़ल होने की तमाम ख़ुसूसियात मौजूद हैं, जो अगर आपको मुनासिब लगे तो मेरी नाक़िस अक़्ल के मुताबिक़ ये हो सकतीं हैं -
//जहाँ से मुझको गिला भी नहीं रहा अब तो
मलाल इसके सिवा भी नहीं रहा अब तो [2] इस शैर के सानी मिसरे की वजह से भटकाव पैदा हो रहा है, इसे यूँ कर सकते हैं :
"मलाल और कोई भी नहीं रहा अब तो"
//जिसे सँभाल के रक्खा था इक निशानी सा
मेरा वो ज़ख़्म हरा भी नहीं रहा अब तो [4]// इस शैर में विरोधाभास है, जिसे सँभाल के रक्खा था - वो ज़ख़्म क्यों (हरा) नहीं रहा ?
क्योंकि ज़ख़्म को कोई भी हरा नहीं रखना चाहेगा, इसलिए अगर चाहें तो मिसरा ऊला यूँ कर सकते हैं :
"दिखाऊँ कैसे निशानी जो दी थी दिलबर ने"
//करोगे चारागराँ तुम इलाज क्या मेरा
मरज़ रहीन-ए-दवा भी नहीं रहा अब तो [6] इस शैर के ऊला में लफ़्ज़ चारागराँ मुनासिब नहीं है क्योंकि "चारागराँ" को इज़ाफ़त के साथ जैसे - ग़म-ए-चारागराँ या दस्तरस-ए-चारागराँ वगैरह कह सकते हैं यहाँ आप " चारागरों " लिख सकते हैं।
//सरों को ढकने की बातें पुरानी छोड़ो अब
यहाँ हिजाब-ए-क़बा भी नहीं रहा अब तो [8] जनाब हिजाब के साथ इज़ाफ़त में वो लफ़्ज़ शामिल कर सकते हैं जिससे या जिसको हिजाब में (पर्दे में) बयान किया जाना मक़सूद है, जैसे- हिजाब-रुख़-ए-यार, हिजाब-ए-जिस्म, हिजाब-ए-रूह, हिजाब-ए-दहर, हिजाब-ए-ख़ुदी वग़ैरह, यहांँ "हिजाब-ए-क़बा" में क़बा कोई ऐसी शै नहीं है बल्कि क़बा भी एक तरह का हिजाब ही है। हिजाब-ए-क़बा कहना ऐसा ही है जैसे कहा जाए हिजाब-ए-हिजाब या हिजाब-ए-बुर्का या हिजाब-ए-चोग़ा यानि गाऊन यानि क़बा। उम्मीद है कि मैैं अपनी बात पहुंँचा सका हूंँ। आप सानी को कुछ और कर के देखें या यूँ भी कर के देख सकते हैं :
"यहाँ हिजाब-ए-नज़र भी नहीं रहा अब तो"
जनाब अगर मेरी किसी बात से आपकी दिल-आज़ारी हुई हो तो माज़रत ख़्वाह हूँ। सादर।
आ. भाई रवि भसीन जी सादर अभिवादन । बेहतरीन गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
आद0 रवि भसीन "शाहिद" साहिब सादर अभिवादन। बहुत बेहतरीन एवम उम्दा ग़ज़ल,, हरेक शैर पढ़ कर वाह वाह निकले। शैर दर शैर दाद और बधाई निवेदित करता हूँ।
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