For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

बहरे हज़ज मुसद्दस महज़ूफ़
1 2 2 2 / 1 2 2 2 / 1 2 2

जो तेरी आरज़ू खोने लगा हूँ
जुदा ख़ुद से ही मैं होने लगा हूँ [1]

जो दबती जा रही हैं ख़्वाहिशें अब
सवेरे देर तक सोने लगा हूँ [2]

बड़ी ही अहम हो पिक फ़ेसबुक पर
मैं यूँ तय्यार अब होने लगा हूँ [3]

जो आती थी हँसी रोने पे मुझको
मैं हँसते हँसते अब रोने लगा हूँ [4]

बढ़ाता जा रहा हूँ उनसे क़ुरबत
मैं ग़म के बीज अब बोने लगा हूँ [5]

जो पुरखों की दिफ़ा मैं कर रहा हूँ
ये क्या क्या बोझ मैं ढोने लगा हूँ [6]

न देखो ये कि मैं क्या कर न पाया
बताओ ये मैं किस कोने लगा हूँ [7]

ये मिट जाएँ नया हो जाऊँ 'शाहिद'
यूँ दिल के दाग़ मैं धोने लगा हूँ [8]
(मौलिक व अप्रकाशित)

Views: 801

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by रवि भसीन 'शाहिद' on June 6, 2020 at 10:43pm

आदरणीय रूपम कुमार 'मीत' साहिब, आपकी हौसला-अफ़ज़ाई के लिए तह-ए-दिल से आपका आभारी हूँ! आप जिस दिलचस्पी और मेहनत से blogs पढ़ रहे हैं, मेरा दिल कहता है आप शाइरी में बहुत तरक़्क़ी करेंगे। आपको ढेरों शुभकामनाएँ।

Comment by रवि भसीन 'शाहिद' on March 17, 2020 at 7:20pm

आदरणीय लक्ष्मण भाई, आदाब। आपकी हौसला-अफ़ज़ाई के लिए बेहद शुक्रगुज़ार हूँ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 17, 2020 at 7:24am

आ. भाई रवि जी, सादर अभिवादन।सुंदर गजल हुई है । हार्दिक बधाई । साथ ही भाई समर जी का भी आभार कि नयी नयी बाते सीखने को मिलती हैं ..

Comment by रवि भसीन 'शाहिद' on March 16, 2020 at 7:39pm

आदरणीय उस्ताद-ए-मुहतरम, जी बहुत बेहतर है। आपकी इनायत के लिए तह-ए-दिल से आभारी हूँ सर।

Comment by Samar kabeer on March 16, 2020 at 6:10pm

//मुसलसल पैरवी पुरखों की कर के
ये क्या क्या बोझ मैं ढोने लगा हूँ//

ये ठीक है ।

//आपको बार-बार ज़हमत देने के लिए माज़रत-ख़्वाह हूँ//

ऐसा न कहें,ये तो मेरा फ़र्ज़ है जो मैं अदा कर रहा हूँ ।

Comment by रवि भसीन 'शाहिद' on March 16, 2020 at 4:08pm

आदरणीय उस्ताद-ए-मुहतरम, दो और प्रयास किये हैं:

मुसलसल पैरवी पुरखों की कर के
ये क्या क्या बोझ मैं ढोने लगा हूँ

वकालत कर के पुरखों की मुसलसल
ये क्या क्या बोझ मैं ढोने लगा हूँ

आपको बार-बार ज़हमत देने के लिए माज़रत-ख़्वाह हूँ।

Comment by Samar kabeer on March 16, 2020 at 3:06pm

'जो पुरखों की दिफ़ा मैं कर रहा हूँ
ये क्या क्या बोझ मैं ढोने लगा हूँ '

'दिफ़ा'अ'शब्द  में इज़ाफ़त ठीक नहीं लगती "दिफ़ा'अ-ए"दूसरी  बात शैर में तक़ाबुल-ए-रदीफ़ कुल्ली दोष भी है,इस मिसरे को 'दिफ़ा'अ' शब्द के बग़ैर कहने का प्रयास करें ।

Comment by रवि भसीन 'शाहिद' on March 15, 2020 at 10:24pm

आदरणीय उस्ताद-ए-मुहतरम, इस शे'र की तक़्ती'अ मैंने यूँ की थी:

दिफ़ा-ए-आ / बा-ओ-अजदा / द कर के
1  2  2  2  /  1  2     2 2  / 1  2   2

Comment by Samar kabeer on March 15, 2020 at 7:39pm

//दिफ़ा-ए-आबा-ओ-अजदाद कर के//

इस मिसरे की तक़ती'अ कर के देखें ।

Comment by रवि भसीन 'शाहिद' on March 15, 2020 at 3:18pm

आदरणीय उस्ताद-ए-मुहतरम समर कबीर साहिब, सादर प्रणाम। आपकी हौसला-अफ़ज़ाई और इस्लाह के लिए बेहद शुक्रगुज़ार हूँ। दिफ़ा'अ के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी देने के लिए हार्दिक आभार। सर, क्या इस मिस्रे को यूँ कहा जा सकता है:

दिफ़ा-ए-आबा-ओ-अजदाद कर के
ये क्या क्या बोझ मैं ढोने लगा हूँ

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

रक्षिता सिंह replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-123 (जय/पराजय)
"सादर प्रणाम, आदरणीय ।"
10 hours ago
रक्षिता सिंह replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-123 (जय/पराजय)
"सुन, ससुराल में किसी से दब के रहने की कोई ज़रूरत नहीं है। अरे भाई, हमने कोई फ्री में सादी थोड़ी की…"
10 hours ago
Nilesh Shevgaonkar shared their blog post on Facebook
16 hours ago
Admin replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-123 (जय/पराजय)
"स्वागतम"
yesterday
Tilak Raj Kapoor replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-180
"आदरणीय गजेंद्र जी, हृदय से आभारी हूं आपकी भावना के प्रति। बस एक छोटा सा प्रयास भर है शेर के कुछ…"
yesterday
Gajendra shrotriya replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-180
"इस कठिन ज़मीन पर अच्छे अशआर निकाले सर आपने। मैं तो केवल चार शेर ही कह पाया हूँ अब तक। पर मश्क़ अच्छी…"
yesterday
Richa Yadav replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-180
"आदरणीय गजेंद्र ji कृपया देखिएगा सादर  मिटेगा जुदाई का डर धीरे धीरे मुहब्बत का होगा असर धीरे…"
yesterday
Tilak Raj Kapoor replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-180
"चेतन प्रकाश जी, हृदय से आभारी हूं।  साप्ताहिक हिंदुस्तान में कोई और तिलक राज कपूर रहे होंगे।…"
yesterday
Tilak Raj Kapoor replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-180
"धन्यवाद आदरणीय धामी जी। इस शेर में एक अन्य संदेश भी छुपा हुआ पाएंगे सांसारिकता से बाहर निकलने…"
yesterday
Chetan Prakash replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-180
"आदरणीय,  विद्यार्जन करते समय, "साप्ताहिक हिन्दुस्तान" नामक पत्रिका मैं आपकी कई ग़ज़ल…"
yesterday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-180
"वज़न घट रहा है, मज़ा आ रहा है कतर ले मगर पर कतर धीरे धीरे। आ. भाई तिलकराज जी, बेहतरीन गजल हुई है।…"
yesterday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-180
"आ. रिचा जी, अभिवादन। गजल की प्रशंसा के लिए धन्यवाद।"
yesterday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service