बहरे हज़ज मुसद्दस महज़ूफ़
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जो तेरी आरज़ू खोने लगा हूँ
जुदा ख़ुद से ही मैं होने लगा हूँ [1]
जो दबती जा रही हैं ख़्वाहिशें अब
सवेरे देर तक सोने लगा हूँ [2]
बड़ी ही अहम हो पिक फ़ेसबुक पर
मैं यूँ तय्यार अब होने लगा हूँ [3]
जो आती थी हँसी रोने पे मुझको
मैं हँसते हँसते अब रोने लगा हूँ [4]
बढ़ाता जा रहा हूँ उनसे क़ुरबत
मैं ग़म के बीज अब बोने लगा हूँ [5]
जो पुरखों की दिफ़ा मैं कर रहा हूँ
ये क्या क्या बोझ मैं ढोने लगा हूँ [6]
न देखो ये कि मैं क्या कर न पाया
बताओ ये मैं किस कोने लगा हूँ [7]
ये मिट जाएँ नया हो जाऊँ 'शाहिद'
यूँ दिल के दाग़ मैं धोने लगा हूँ [8]
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय रूपम कुमार 'मीत' साहिब, आपकी हौसला-अफ़ज़ाई के लिए तह-ए-दिल से आपका आभारी हूँ! आप जिस दिलचस्पी और मेहनत से blogs पढ़ रहे हैं, मेरा दिल कहता है आप शाइरी में बहुत तरक़्क़ी करेंगे। आपको ढेरों शुभकामनाएँ।
आदरणीय लक्ष्मण भाई, आदाब। आपकी हौसला-अफ़ज़ाई के लिए बेहद शुक्रगुज़ार हूँ।
आ. भाई रवि जी, सादर अभिवादन।सुंदर गजल हुई है । हार्दिक बधाई । साथ ही भाई समर जी का भी आभार कि नयी नयी बाते सीखने को मिलती हैं ..
आदरणीय उस्ताद-ए-मुहतरम, जी बहुत बेहतर है। आपकी इनायत के लिए तह-ए-दिल से आभारी हूँ सर।
//मुसलसल पैरवी पुरखों की कर के
ये क्या क्या बोझ मैं ढोने लगा हूँ//
ये ठीक है ।
//आपको बार-बार ज़हमत देने के लिए माज़रत-ख़्वाह हूँ//
ऐसा न कहें,ये तो मेरा फ़र्ज़ है जो मैं अदा कर रहा हूँ ।
आदरणीय उस्ताद-ए-मुहतरम, दो और प्रयास किये हैं:
मुसलसल पैरवी पुरखों की कर के
ये क्या क्या बोझ मैं ढोने लगा हूँ
वकालत कर के पुरखों की मुसलसल
ये क्या क्या बोझ मैं ढोने लगा हूँ
आपको बार-बार ज़हमत देने के लिए माज़रत-ख़्वाह हूँ।
'जो पुरखों की दिफ़ा मैं कर रहा हूँ
ये क्या क्या बोझ मैं ढोने लगा हूँ '
'दिफ़ा'अ'शब्द में इज़ाफ़त ठीक नहीं लगती "दिफ़ा'अ-ए"दूसरी बात शैर में तक़ाबुल-ए-रदीफ़ कुल्ली दोष भी है,इस मिसरे को 'दिफ़ा'अ' शब्द के बग़ैर कहने का प्रयास करें ।
आदरणीय उस्ताद-ए-मुहतरम, इस शे'र की तक़्ती'अ मैंने यूँ की थी:
दिफ़ा-ए-आ / बा-ओ-अजदा / द कर के
1 2 2 2 / 1 2 2 2 / 1 2 2
//दिफ़ा-ए-आबा-ओ-अजदाद कर के//
इस मिसरे की तक़ती'अ कर के देखें ।
आदरणीय उस्ताद-ए-मुहतरम समर कबीर साहिब, सादर प्रणाम। आपकी हौसला-अफ़ज़ाई और इस्लाह के लिए बेहद शुक्रगुज़ार हूँ। दिफ़ा'अ के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी देने के लिए हार्दिक आभार। सर, क्या इस मिस्रे को यूँ कहा जा सकता है:
दिफ़ा-ए-आबा-ओ-अजदाद कर के
ये क्या क्या बोझ मैं ढोने लगा हूँ
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