212 / 1222 / 212 / 1222
दुनिया के गुलिस्ताँ में फूल सब हसीं हैं पर
एक मुल्क ऐसा है जो बला का है ख़ुद-सर
लाल जिसका परचम है इंक़लाब नारा है
ज़ुल्म करने में जिसने सबको जा पछाड़ा है
इस जहान का मरकज़ ख़ुद को गो समझता है
राब्ता कोई दुनिया से नहीं वो रखता है
अपनी सरहदों को वो मुल्क चाहे फैलाना
इसलिए वो हमसायों से है आज बेगाना
बात अम्न की करके मारे पीठ में खंजर
और रहनुमा उसके झूट ही बकें दिन भर
इंसाँ की तरक़्क़ी में जिसका कुछ नहीं हिस्सा
बे-हयाई में लेकिन क्या मुक़ाबला उसका
है वो मुल्क आमादा बस लहू बहाने पर
वो बशर को ले आया मौत के दहाने पर
दुनिया के मुमालिक को तुहफ़े दे वबाओं के
और फिर करे सौदे लाज़मी दवाओं के
भेड़ों जैसे बाशिंदे सीधे सीधे चलते हैं
हाकिमों के टुकड़ों पर मुश्किलों से पलते हैं
हक़ नहीं है उनको ये मीर चुन सकें अपने
ज़ुल्म देख कर भी वो बंद लब रखें अपने
क़ौम है ये कैसी और कैसी इसकी हैं क़द्रें
दूसरों की दौलत पर इसकी हैं सदा नज़रें
रहम और शफ़क़त के जज़्बों से ये आरी हैं
धरती माँ के सीने पर बोझ कितने भारी हैं
बैट केकड़ा मछली साँप टिड्डियाँ मेंढक
सब मकोड़े छिपकलियाँ मकड़ी च्यूँटी चूहे तक
बिल्लियाँ भी कुत्ते भी ये ख़ुशी ख़ुशी खाएँ
तल के भून के या फिर कच्चे ही निगल जाएँ
ज़िन्दगी-ओ-क़ुदरत पे फ़िक्र तक नहीं इनका
इल्म की किताबों में ज़िक्र तक नहीं इनका
एक ऐसा आलिम है जिसको ये ख़ुदा मानें
झूट और दग़ाबाज़ी उसका फ़लसफ़ा जानें
नक़्ल में ये माहिर हैं इनका कुछ नहीं अपना
कुछ बनाना बिन चोरी इनके वास्ते सपना
ये ज़बाँ समझते हैं ज़र की और ताक़त की
क़द्र ये नहीं करते हक़ की और शराफ़त की
अब सबक़ जहाँ ने इस मुल्क को सिखाना है
बंद कर तिजारत को ठीक रह पे लाना है
जब ये पूरी दुनिया में ख़ुद को तन्हा पाएगा
अहमियत रफ़ाक़त की तब ये जान जाएगा
वैसे ये नहीं 'शाहिद' लहज-ए-कलाम अपना
पेश करना था बस इक मुल्क को सलाम अपना
फ़ख़्र है जिसे अपनी ना-हक़ीक़ी अज़मत पर
ग़ौर जो नहीं करता अपनी ही जहालत पर
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
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कठिन शब्दों के अर्थ:
1. ख़ुद-सर = अड़ियल, घमंडी, stubborn, arrogant, rude
2. मरकज़ = केंद्र, centre (चीन के लोग अपने देश को 'Middle Kingdom' मानते हैं)
3. आमादा = तैयार, तत्पर, ready
4. मुमालिक = मुल्क का बहुवचन, countries
5. बाशिंदे = नागरिक, citizens
6. क़द्रें = मूल्य, values
7. शफ़क़त = प्रेम, affection, kindness
8. आरी = रहित, वंचित, devoid
9. फ़िक्र = सोच-विचार, thought
10. आलिम = विद्वान, scholar
11. ज़र = पैसा, wealth, gold
12. हक़ = सच, truth
13. रफ़ाक़त = दोस्ती, friendship, companionship
14. ना-हक़ीक़ी = अवास्तविक, unreal
15. अज़मत = प्रतिष्ठा, greatness
16. जहालत = अज्ञानता, जड़ता, ignorance, stupidity
Comment
आदरणीय Dr. Vijai Shanker साहिब, आपकी ज़र्रा-नवाज़ी और हौसला-अफ़ज़ाई के लिए बेहद शुक्रगुज़ार हूँ।
शानदार प्रस्तुति , बहुत बहुत बधाई , आदरणीय रवि भसीन शाहिद जी , सादर।
ठीक है, एडिट कर दें ।
आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' साहिब, आप से निरंतर मिल रहे प्रोत्साहन के लिए तह-ए-दिल से शुक्रिया पेश करता हूँ।
आदरणीय अमीरुद्दीन 'अमीर' साहिब, आपकी नवाज़िश और भरपूर हौसला-अफ़ज़ाई के लिए आपका तह-ए-दिल से शुक्रगुज़ार हूँ।
जी, मुझसे ग़लती से उस्ताद-ए-मुहतरम समर कबीर साहिब की टिप्पणी delete हो गई है, जिसके लिए उस्ताद जी से और सभी साथियों से बेहद माज़रत चाहता हूँ। उनकी तमाम इस्लाह और सारी हिदायात मैंने नीचे अपने जवाब में डाल दी हैं।
आदरणीय उस्ताद-ए-मुहतरम Samar kabeer साहिब, सादर प्रणाम! आपकी बहुमूल्य इस्लाह के लिए आपका तह-ए-दिल से शुक्रिया! सर, कुछ बदलाव करने का प्रयास किया है:
/और रहनुमाँ उसके झूट ही बकें दिन भर
'रहनुमाँ' को 'रहनुमा' कर लीजिये/
जी, बहतर है।
/इंसाँ की तरक़्क़ी में हिस्सा कुछ नहीं जिसका
बे-हयाई में लेकिन क्या मुक़ाबला उसका/
उस्ताद जी, अगर यूँ कहा जाए तो:
212 / 1222 / 212 / 1222
इंसाँ की तरक़्क़ी में जिसका कुछ नहीं हिस्सा
बे-हयाई में लेकिन क्या मुक़ाबला उसका
/हाकिमों को चुनने का हक़ नहीं उन्हें लेकिन
देखें ज़ुल्म वो सारे कुछ न वो कहें लेकिन/
उस्ताद जी, अगर यूँ कहा जाए तो:
212 / 1222 / 212 / 1222
हक़ नहीं है उनको ये मीर चुन सकें अपने
ज़ुल्म देख कर भी वो बंद लब रखें अपने
/धरती माँ के सीने पर बोझ कितना भारी हैं
इस मिसरे में 'कितना' को 'कितने' कर लीजिये/
जी, ठीक है।
'फ़िक्र' के बारे में जैसा आपने फ़ोन पर बताया कि कहीं कहीं क़दीम शोअरा ने इस शब्द को पुल्लिंग के तौर पर भी इस्तेमाल किया है, इसलिए ये मिस्रा इसी तरह रखने की इजाज़त चाहूँगा:
ज़िन्दगी-ओ-क़ुदरत पे फ़िक्र तक नहीं इनका
/वैसे ये नहीं 'शाहिद' लहजा-ए-कलाम अपना
सहीह लफ़्ज़ है 'लहज-ए-कलाम'/
जी, बहतर है।
/ग़ौर पर नहीं जिसका अपनी ही जहालत पर
इस मिसरे को यूँ कर लें:
ग़ौर जो नहीं करता अपनी ही जहालत पर/
जी, बहतर है।
आपकी तमाम इस्लाह के अनुसार नज़्म में संशोधन कर दूँगा, सर।
आ. भाई रवि भसीन जी, सादर अभिवादन । इस अति उत्तम रचना के लिए ढेरों बधाइयाँ ।
मुहतरम जनाब रवि भसीन 'शाहिद' जी।
इस ज़बरदस्त प्रस्तुति और जज़्बे के लिए आपको सलाम पेश करता हूँ, उस्ताद मुहतरम जनाब समर कबीर साहिब व अन्य गुणीजनों के आशीर्वाद उपरांत आपकी यह रचना मील का पत्थर होने जा रही है। मेरी भी शुभकामनाएं स्वीकार करें। सादर।
जी कृप्या पहली पंक्ति यूँ पढ़ें:
दुनिया के गुलिस्ताँ में फूल सब हसीं हैं पर
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