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हुस्न का उसे ख़ुदा क्यों ग़ुरूर हो गया (६९ )

(212 1212 212 1212 )
हुस्न का उसे ख़ुदा क्यों ग़ुरूर हो गया
जो करीब दिल के था आज दूर हो गया
**
क्यों चुनी है ये डगर क्यों ख़फ़ा हुई नज़र
क्या गुनाह कर दिया क्या क़ुसूर हो गया
**
बेख़बर रहा जिसे मानता था हमसफ़र
बेवफ़ा बता के ख़ुद बेक़ुसूर हो गया
**
हो गई हुज़ूर की दीद मुझको जब कभी
यूँ लगा मुझे सनम अब ज़ुहूर  हो गया 
**
साथ चन्द रोज़ ही मिल सका मुझे मगर
मोजिज़ा है प्यार का मैं ग़फ़ूर हो गया 
**
आतिश-ए-फ़िराक़ में जल के ख़ाक़ हूँ मगर
ग़म से आज बेख़बर भी हज़ूर हो गया
**
नीमबाज़-चश्म* से यूँ पिलाई मय मुझे
ता-हयात जो रहे वो सुरूर हो गया
**
लुट गया है कारवाँ ख़त्म एक दास्ताँ
ख़्वाब इक हसीन सा चूर चूर हो गया
**
दिल में घर बना गई तीरगी 'तुरंत' आज
आशियाँ-ए-दिल से अब दूर नूर हो गया
**
गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' बीकानेरी

(मौलिक एवं अप्रकाशित )

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Comment by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on March 15, 2020 at 2:05pm

आदरणीय Samar kabeer साहेब , 

आपकी आनंदित करने वाली सराहना से मन तृप्त हुआ | सृजन सार्थक हुआ |सादर आभार  एवम नमन |

Comment by Samar kabeer on March 15, 2020 at 11:52am

जनाब गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत' जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है,बधाई स्वीकार करें ।

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