एक गीत
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बाहर के डर से लड़ लेंगे
भीतर का डर कैसे भागे |
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बचपन से देखा है हमने
अक्सर खूब डराया जाता |
दुःख यही है अपनों द्वारा
ऐसा क़दम उठाया जाता |
छोटी छोटी गलती पर भी
बंद किया जाता कमरे में,
फिर शाला में अध्यापक का
डण्डा हमें दिखाया जाता |
एक बात है समता का यह
लागू रहता नियम सभी पर,
निर्धन या धनवान सभी के
बच्चे रहते सदा अभागे |
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बाहर के डर से लड़ लेंगे
भीतर का डर कैसे भागे |
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डर की यह बुनियाद सभी के
बचपन में ही पड़ जाती है |
जैसे कील नुकीली कोई
गहराई तक गड़ जाती है |
और यही डर धीरे धीरे
जीवन का बनता है हिस्सा,
और धर्म के आडम्बर में
सोच अभय की सड़ जाती है |
जीवन की आपाधापी में
भार दवाबों का इतना है,
पता नहीं है आगत में कब
निद्रा से नूतन डर जागे |
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बाहर के डर से लड़ लेंगे
भीतर का डर कैसे भागे |
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हम सब ही जीवन में डर का
नित सम्मान किया करते हैं |
अंध भक्त हों बाबाओं का
क्यों गुणगान किया करते हैं |
कारण है जितने भी बाबा
दिखलाते हैं डर ईश्वर का,
लाभ उठा इस भय का खुद को
वे धनवान किया करते हैं |
जितने धूर्त गुरू होते हैं
जीवन में अक़्सर देखा है
उनकी सोच सदा रहती है
लोगों की सोचों से आगे |
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बाहर के डर से लड़ लेंगे
भीतर का डर कैसे भागे |
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गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' बीकानेरी
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आपने रचना को सराहा। आपके स्नेह के लिए अंतस्थल से आभारी हूँ। सादर नमन आदरणीय Samar kabeer साहेब |
जनाब गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत' जी आदाब,अच्छी रचना हुई है,बधाई स्वीकार करें ।
आदरणीय रवि भसीन 'शाहिद' साहेब , आपके उत्साहवर्धन के लिए बहुत बहुत आभार
आदरणीय गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत' साहिब, बहुत ख़ूब! आम इंसान के अंदर के डर की बुनियाद को मनोवैज्ञानिक स्तर पर ब-ख़ूबी बयान किया है आपने इस बा-कमाल रचना में। आपको हार्दिक बधाई।
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