राष्ट्र धर्म - लघुकथा -
परिवार के सभी लोग शाम सात बजे का महाभारत का टी वी पर प्रसारण देख रहे थे।तभी मोबाइल बज उठा।सभी का ध्यान बंट गया।मैं मोबाइल लेकर मेरे कमरे में चला आया।
मोबाइल कान पर लगाया।"हल्लो सिंह साहब, वर्मा बोल रहा हूँ।"
"बोलिये वर्मा जी, कैसे मिजाज हैं?"
"क्या बतायें सर, इस लॉक डाउन ने सब गुड़ गोबर कर रखा है।"
"हाँ थोड़ी परेशानी तो है ही।बोलो कैसे याद किया?"
"भोजन हो गया क्या?"
"आजकल रात्रि का भोजन तो महाभारत के पश्चात ही होता है।"
"मतलब अभी थोड़ी देर फ़्री हैं ना?"
"हाँ क्यों बोलो?"
"अभी आता हूँ पाँच दस मिनट में।"
मैं एक अजीब से असमंजस में आ गया। क्या समस्या आ गयी वर्मा जी को।हमारी ही सोसाइटी की बिल्डिंग बी-टू में रहते थे।अगले पाँच दस मिनट मेरे बड़ी बेचेनी से कटे।आजकल हमेशा एक ही डर होता था कि किसी के कोरोना होने की खबर ना मिले।
मैं इसी उधेड़्बुन में उलझा था कि वर्मा जी आ गये।सीधे उन्हें मेरे ही कमरे में ले आया।
आते ही उन्होंने कंधे पर लटका बैग उतार कर कंप्यूटर टेबल पर रखा।
जैसे ही वे बैग खोलने लगे,"इसमें क्या है वर्मा जी?"
"अरे सर बड़ी मुश्किल से जुगाड़ किया है।कितने दिन हो गये साथ बैठे हुए।"
इतना बोलते ही वर्मा जी ने बैग से पीटर स्कॉच की बोतल और तंदूरी चिकन का पॉकेट निकाला।
"नहीं वर्मा जी, अभी इस सब के लिये यह उचित समय नहीं है।"
"क्या कह रहे हैं सर ? कितनी भाग दौड़ करनी पड़ी है।"
"आप खुद ही सोचो वर्मा जी, सारा देश भीषण कोरोना वाइरस से त्राहि त्राहि कर रहा है। कितनी बड़ी विपदा से जूझ रहा है।।देश की आधी आबादी भूखी सो रही है और इन हालात में हम पार्टी करें। इंसान होने के थोड़े तो प्रमाण दो। हैवान मत बनो।"
मौलिक, अप्रकाशित एवम अप्रसारित
Comment
हार्दिक आभार आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप'जी। आप लघुकथा की मूल भावना को समझ पाये और साथ ही उसकी व्याख्या भी समुचित तरीके से की।पुनः आभार।
आद0 तेजवीर सिंह जी सादर अभिवादन। बड़ी मार्मिक बात लघुकथा के माध्यम से कही आपने। काश हर आम ओ शख्स जो भी इस योग्य है, अगर यह सोचने लगे तो कोई भूखा न सोवे और यहीं राष्ट्र धर्म भी है। बधाई स्वीकारें इस उत्तम लघुकथा पर
हार्दिक आभार आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी।आपने लघुकथा के मर्म और उसकी उपयोगिता को समझा तथा उसकी सारगर्भित विवेचना के लिये पुनः आभार।
आ. भाई तेजवीर जी, सादर अभिवादन । समूहिक आपदा के समय भी निज आनन्द के लिए उतावले लोगों की सचमुच कमीं नहीं है । आये दिन इस तरह के समाचार आ रहे हैं कि इस समय भी लोग किस तरह पिकनिक, जन्मदिन , विवाह की सालगिरह या अन्य निजी आनन्द के लिए देश समाज को विपदा की आग में झोंक रहे हैं । इसी मानसिकता को उभारती इस अच्छी लघुकथा के लिए दिल से बहुत बहुत बधाई ।
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