कहीं नायाब पत्थर है , कहीं मन्दिर मदीना है
तेरा घर संगेमरमर का , मेरा तो नीला ज़ीना है
कोई मन्दिर पे सर टेके, कोई काबा को माने है
मैं हर पत्थर पे सर टेकूं जहाँ नेकी क़रीना है
कहीं पर धूप है तपती, कहीं सागर की लहरें हैं
अजब है रंग दरिया का, जहाँ तेरा सफ़ीना है
कोई ऐ सी में बैठा है , कोई छतरी को भी तरसे
मगर ख़ूँ एक सा बहता, बहे इक सा पसीना है
कभी मिट्टी से भी पूछो, कि जलना है या दफना दूं
कहे मिट्टी दे आज़ादी , मुझे आज़ाद जीना है
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डिम्पल शर्मा
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय डिंपल शर्मा जी सुंदर गज़ल सृजन के लिए बहुत बहुत बधाई आपको।
कोई मन्दिर पे सर टेके, कोई काबा को माने है
मैं हर पत्थर पे सर टेकूं जहाँ नेकी क़रीना है........अत सुंदर।
आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप' जी नमस्कार और
बहुत बहुत धन्यवाद आभार स्वीकार करें , मेरी ग़ज़ल पर आपका बधाई संदेश मेरे हौसलों को बढ़ाता है ! हृदय तल से आभार ।
आद0 डिम्पल शर्मा जी सादर अभिवादन। खूबसूरत ग़ज़ल पर बधाई स्वीकार करे
आदरणीय Anvita जी नमस्ते , आपका बहुत बहुत आभार धन्यवाद मेरी रचना की सराहना करने के लिए , स्नेह एवं आशीर्वाद बनाए रखें।
आदरणीय Samar Kabeer साहब उस्ताद मोहतरम को प्रणाम, चरण स्पर्श!
आपका बहुत-बहुत शुक्रिया धन्यवाद आभार की, आपने मुझे इतने खुबसूरत समूह से जोड़ा ,कृपा दृष्टि एवं आशीर्वाद बनाए रखें ।
डिम्पल शर्मा
मुहतरमा डिम्पल शर्मा जी आदाब,ओबीओ पटल पर आपका स्वागत है । ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
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