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ज़माने भर में जितने हादसे हैं.
हमें ख़ामोश होकर देखने हैं.
किसी को चलने में दिक़्क़त न आए,
चलो इतना सिमट कर बैठते हैं.
मेरी बेबाकियों के रास्ते में,
मेरी कुछ ख़्वाहिशों के कटघरे हैं.
बिना जिसके हुआ था जीना मुश्किल,
उसी के होने से शिकवे गिले हैं.
तुम्हारी याद भी इक रोग है क्या,
तुम्हारे ख़त को छूते डर रहे हैं.
दलीले रह गई कमज़ोर मेरी,
वो अपनी बात कह कर जा चुके हैं.
तरक़्क़ी वाली ये दुनिया है ऐसी,
यहाँ अब हर किसी से फासले हैं.
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
आदरणीय अमीर साहब गजल पर ध्यान देने के लिए बहुत-बहुत आभार आपका सुझाव उत्तम है तुरंत पालन किया जा रहा है
सादर
जनाब मनोज कुमार 'अहसास' जी आदाब।शानदार ग़ज़ल हुई है दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ।
//दलीले रह गई कमज़ोर मेरी,// समर सर बता ही चुके हैं, दलीलें बहुवचन है इसलिए गई को भी गईं कर लें। सादर।
आदरणीय समर कबीर साहब
बहुत बहुत आभार सर आपकी सलाह के बिना मेरी हर ग़ज़ल अधूरी है आप कुशल से तो है ना थोड़ा रेस्ट कर लीजिए सर मैं आपसे पहले भी कहता रहा हूं आराम भी जरूरी है हार्दिक आभार सर
आदरणीय लक्ष्मण धामी मुसाफ़िर जी हार्दिक आभार
जो टंकण त्रुटियां आपको दिखाई दें उन्हें बता भी दिया करें बड़ी कृपा होगी
सादर
जनाब मनोज कुमार अहसास जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है,बधाई स्वीकार करें ।
ये देख कर प्रसन्नता हुई कि इस बार आपने नुक़्ते लगाए हैं ।
'दलीले रह गई कमज़ोर मेरी'
इस मिसरे में 'दलीले' को "दलीलें" कर लें ।
यहाँ अब हर किसी से फासले हैं'
पारिवारिक कारणों से कुछ समय ओबीओ पर हाज़िर नहीं हो सकूँगा,सिर्फ़ तरही मुशाइर: में शिर्कत हो सकेगी, आपको कहीं मेरी ज़रूरत महसूस हो तो फ़ोन पर सम्पर्क कर सकते हैं ।
आ. भाई मनोज जी, अच्छी गजल हुई है । हार्दिक बधाई । कुछ टंकण त्रुटियाँ हैं देखियेगा ।
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